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२३८ पउमचरियं
[२९. १६० अवमाणदूमिएणं, किं कीरद पणइणीण जीएणं । तुङ्गकुलनाइयाणं?, वरं खु मरणं सुहावेइ ॥ १६ ॥ जाव य सा भणइ इमं, ताव च्चिय कञ्चुई समणुपत्तो । एवं समुल्लवन्तो, तुज्झ जलं पेसियं पंहुणा ॥ १७ ॥ सा कञ्चुइणा मुद्धा, अहिसित्ता तेण सन्तिसलिलेणं । निबवियमाणसग्गी, पसन्नहियया तओ जाया ॥ १८ ॥ ताव य नराहिवेणं. भणिओ च्चिय कञ्चई सरोसेणं । न य आगओ सि सिग्धं, को वक्खेवोतुहं आसि ॥१९॥ ता कञ्चुई पवुत्तो, भएण अहियं चलन्तसबङ्गो । सामिय ! न य वक्वेवो, अस्थि महं कोइ जियलोए ॥ २० ॥ एयं जराएँ अङ्ग, मज्झ कयं विगयदप्पउच्छाहं । तुरन्तस्स वि धणियं, न वहइ परिजुण्णसयडं व ॥ २१ ॥ जे आसि मज्झ नयणा, सामिय! पढमं विपारदिडिल्ला । ते वि य न दीहपेही, संपइ जाया कुमित्त व ॥ २२ ॥ कण्णा वि पढम वयणं, निसुणन्ता मम्मणं पि उल्लावं । ते सुमहयं पि सई, न सुणन्ति पहू ! दुपुत्तर ॥ २३ ॥ जे वि महं आसि पुरा, दन्ता वरकुडयकुसुमसंकासा । ते वि जरवड्डइकया, पडिया अरय ब तुम्बाओ ॥ २४ ॥ आसि च्चिय पढमयर, हत्था दढचावकड्डूणसमत्था । ते वि य गय व कवलं, मुहाउ दुक्खेहि ढोयन्ति ॥ २५॥ जङ्घाओ वि य मज्झं, आसि पुरा चलण-गमणदच्छाओ । नाह ! अणायत्ताओ, संपइ जह दुट्टमहिलाओ ॥ २६ ॥ नवरं चिय हियइट्ठा, दइया विव नरबई महं लट्ठी। ना कुणइ अवटुंम्भ, घुलन्त-विवडन्तदेहस्स ॥ २७॥ तुरन्तस्स य अङ्ग, कम्पइ बहुला हवन्ति नीसासा । खेओ य समुप्पज्जइ, गई वि मन्दं समुबहइ ॥ २८॥ कत्तो च्चिय वक्खेवो?, सामिय! अहयं जराऍ परिगहिओ। आणाऍ तुज्झ एन्तो, इमाएँ वेलाऍ संपत्तो ॥ २९ ॥ सुणिऊण तस्स वयणं, राया चिन्तेइ अधुवं देहं । तडिविलसियं व नज्जइ, खणेण जीयं पि नासेइ ॥ ३० ॥
देहस्स कए पुरिसा, कुणन्ति पावं परिग्गहासत्ता । विसयविसमोहियमई, धम्मं दूरेण वज्जेन्ति ॥ ३१ ॥ वही उसे सुख दे सकता है। (१६) जब वह ऐसा कह ही रही थी कि कंचुकी, ऐसा कहता हुआ कि आपके लिए स्वामीने जल भेजा है, आ पहुँचा । (१७) उस कंचुकी द्वारा वह मुग्धा स्त्री शान्तिजलसे अभिषिक्त की गई। तब मनकी आग शान्त होनेपर वह मनमें प्रसन्न हुई । (१८)
उस समय क्रुद्ध राजाने कंचुकीसे पूछा कि तुम यहाँ जल्दी क्यों नहीं आये। तुम्हें कौनसा विक्षेप हुआ था। (१९) तब भयसे और भी अधिक जिसका सारा अंग काँप रहा है ऐसा कंचुकी कहने लगा कि, हे स्वामी! इस जीवलोकमें मेरा कोई विक्षेपकारी नहीं है। (२०) बुढ़ापेने मेरा यह शरीर दर्प और उत्साहसे रहित बना दिया है। जल्दी करनेपर भी जीर्ण शकटकी भाँति यह विशेष नहीं चलता । (२१) हे स्वामी ! पहले अतिदूर देखनेवाली मेरी जो आँखें थीं वे ही अब कुमित्रकी भाँति दीर्घदर्शी नहीं रहीं हैं । (२२) हे प्रभो ! पहले जो अव्यक्त वचन और सम्भाषण भी कान सुनते थे वे ही अब दुष्ट पुत्रकी भाँति बड़ा भारी शब्द भी नहीं सुन सकते । (२३) कुटजके सुंदर पुष्पोंके सरीखे जो मेरे पहले दाँत थे उन्हें भी जरारूपी बढ़ईने आरोंको गिराकर साफ तुम्वे जैसा बना दिया है। (२४) जो हाथ पहले मजबूत धनुषको खींचने में समर्थ थे वे भी हाथीकी भाँति मुँहतक कौर दुःखसे ले जाते हैं। (२५) हे नाथ! जो जंघाएँ पहले चलन ओर गमनमें दक्ष थीं, अब वे दष्ट स्त्रीकी भाँति स्वाधीन नहीं हैं। (२६) हे राजन् ! प्रिय पत्नीकी भाँति लकड़ी हो केवल मेरी प्यारी है जो काँपते और गिरते शरीरको अवलम्बन देती है। (२७) जल्दी करनेपर शरीर काँपता है, साँस जोरोंसे चलती है, थाक पैदा होता है
और गति भी मन्द हो जाती है। (२८) हे स्वामी! विक्षेप किससे? मैं बुढ़ापे द्वारा पकड़ा गया हूँ। आपकी आज्ञासे चलता-चलता इतने समयमें मैं यहाँ पहुँच पाया हूँ। (२९)
उसका वचन सुनकर राजा सोचने लगा कि यह अध्रव शरीर विजलीकी चमकके जैसा विदित होता है। क्षणभरमें जीव भी चला जाता है । (३०) परिग्रहमें आसक्त पुरुष देहके लिए पाप करते हैं। विषयरूपी विषसे विमोहित
१. पइणा-प्रत्य० ।
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