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पउमचरियं
[२६.९७ दुसहं हवइ समक्खें, दुक्खं चिय उन्भवे नणवयस्स । गयवेयणं तु पच्छा, जणम्मि एसा सुई भमइ ॥ ९७ ॥ सीताएवं अणुकमेणं. जोवण-लायण्ण-कन्तिपडिपुण्णा । सोयस्स मोयणटुं, नज्जइ संवड़िया सोया ॥ ९८॥ . वरकमलपत्तनयणा, कोमुइरयणियरसरिसमुहसोहा । कुन्ददलसरिसदसणा, दाडिमफुल्लाहरच्छाया ॥ ९९ ॥ कोमलबाहालइया, रत्तासोउज्जलाभकरजुयला । करयलसुगेज्झमज्झा, वित्थिण्णनियम्बकरभोरू॥१०० ॥ रत्तप्पलसमचलणा, कोमुइरयणियरकिरणसंघाया । ओहासिउं व नजइ, रयणियरं चेव कन्तीए ॥ १०१॥ एरिसरूवाक्यवा, लक्खणसंपुण्णजोबणगुणोहा । जणएण पसन्नेणं, रामस्स निवेइया सीया ॥ १०२ ॥
सुरवरमहिला वा रूव-लावण्णजुत्ता, रमइ परिमिया सा सत्तकन्नासएहिं ।।
जणयनरवरिन्दो रामदेवस्स भज, विमलगुण सरंतो तं निरूवेइ सीयं ॥ १०३ ॥ । इय पउमचरिए सीया-भामण्डल उप्पत्तिविहाणो नाम छव्वीसइमो उद्देसओ समत्तो ।।
२७. रामकयमेच्छपराजयस्स कित्तणं तो मगहनराहिवई, विम्हियहियओ मुणिं पणमिऊणं । पुच्छइ अणन्नहियओ, कहेहि रामस्स संबन्धं ॥ १॥ रामस्स किं व दिटुं, माहप्पं जणयनरवरिन्देणं । स्व-गुण-जोवणधरी, निरूविया जेण सा सीया ? ॥ २ ॥
अह भणइ गणाहिवई, सेणिय ! निसुणेहि जणयनरवइणा । कजेण जेण दुहिया, रामस्स निरूविया सीया ॥ ३ ॥ किसी दिव्य पुरुष गगनमार्गसे उसका अपहरण किया है। (९६) उत्पत्तिके समय जो दुःख आँखोंके समक्ष होता है वह लोगोंके लिये दुस्सह होता है, परन्तु बाद में वह दुःख नष्ट हो जाता है। लोगोंमें यह अनुश्रुति प्रचलित है। (९७) .
इस तरह अनुक्रमसे यौवन, लावण्य एवं कान्तिसे परिपूर्ण सीता शोक दूर करनेके लिए ही, मालूम होता है, संवर्धित हुई । (६८) उत्तम कमलदलके समान नेत्रोंवाली, शरत्पूर्णिमाके चन्द्र के समान मुखकी शोभावाली, कुन्दपुष्पके समान दाँतोंवाली, अनारके फूलके समान अधरोंकी कान्तिवाली, कोमल बाहुलतावाली, रक्ताशोकके समान उज्ज्वल कान्तिवाले दोनों हाथोंसे युक्त, हाथमें जिसका कटिप्रदेश पकड़ा जा सकता है ऐसी अर्थात् पतली कमरवाली, विशाल नितम्ब तथा हाथीकी ढूँढके समान ऊरूप्रदेशवाली, रक्तकमल सरोखे पैरोंवाली, शरत्पर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंका मानों समूह हो-ऐसी वह सीता अपनी कान्तिसे मानों चन्द्रमाको प्रकाशित करती हो ऐसा प्रतीत होता था । (९९-१०१) ऐसे सुरूप अवयववाली तथा सम्पूर्ण लक्षण, यौवन एवं गुणसमूहसे युक्त ऐसी सीता जनकने प्रसन्नताके साथ रामको समर्पित की। (१०२)
देवकन्याकी भाँति रूप एवं लावण्यसे युक्त वह सात सौ कन्याओंके साथ क्रीड़ा करती थी। रामके विमल गणोंका स्मरण करके जनक राजाने उनको सीता दो । (१०३)
।पद्मचरितमें सीता-भामण्डलकी उत्पत्तिविधि नामका छब्बीसवाँ उददेश समाप्त हुआ।
२७. रामद्वारा म्लेच्छोंकी पराजय तब हृदयमें विस्मित हो एकाग्रचित्तवाले मगधराज श्रेणिकने मुनिको प्रणाम करके पूछा कि आप रामका वृत्तान्त कहें। (१) जनक राजाने रामका ऐसा कौनसा माहात्म्य देखा कि रूप, गुण एवं यौवनको धारण करनेवाली सीता उन्हें दी। (२) इस पर गणाधिपति गौतमने कहा, हे श्रेणिक! जिस कारण जनक राजाने अपनी पुत्री सीताको दिया उसे तुम सुनो । (३)
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