Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 273
________________ पउमचरियं [२६. ३४तो भणइ मुणी धम्मो, जीवदया निग्गहो कसायाणं । एएसु चेव जीवो, मुच्चइ घणकम्मबन्धाओ ॥ ३४ ॥ हिंसा पुण जीववहो, सो वि य मंसस्स कारणं हवइ । तुहमवि खायसि मंसं, कह बन्धविमोयणं कुणसि? ॥ ३५॥ इह खाइऊण मंसं, जिब्भिन्दियवसगओ सरीरत्थो । मरिऊण वच्चइ नरो, तिबमहावेयणे नरए ॥ ३६ ॥ पहाणेण मुण्डणेण य, दाणेणं विविहलिङ्गगहणेणं । मंसासिणस्स भणियं, नत्थि हु साहारणं किंचि ॥ ३७॥ संसारत्था जीवा, आसि चिय बन्धवा परभवेसु । खायन्तएण मंसं, ते सबे भक्खिया नवरं ॥३८॥ न य पायवेसु मंसं. उप्पज्जइ नेय धरणिपट्टम्मि । वज्जेह सुक्क सोणिय-समुन्भव पावसंबन्धं ॥ ३९ ॥ जलयर-पक्खि-मिया वि य, हन्तूणं जीववल्लहे सत्ते । एएसु हवइ मंसं, दयावरा तं न भुञ्जन्ति ॥ ४० ॥ धण्णेण वड्वियं चिय, महिसीखीरेण पोसियं देहं । तह वि य खायन्ति नरा, जणणीए अत्तणो मंसं ॥ ४१ ॥ इह मन्दरहेटाओ, पुढवी रयणप्पभा मुणेयवा । तिसु भागेसु विहत्ता, असीयं जोयणा लक्खं ॥ ४२ ॥ तत्थेव भवणवासी, देवा निवसन्ति दोसु भागेसु । तइए पुण नेरइया, हवन्ति बहुवेयणा निययं ॥ ४३ ॥ तत्तो य सक्करा वालुया य पङ्कप्पभा महापुढवी । धूमा तमा तमतमा, इमासु नरया महाघोरा ।। ४४ ॥ नरओ कुम्भीपाओ, वेयरणी कूडसामली हवइ । असिपत्तवणे एत्तो, तत्थेव खुरप्पधाराओ ॥ ४५ ॥ दुग्गन्धा दुप्फरिसा, ससि सूरविवज्जिया तमब्भहिया । एएसु पावकारी, नरएसु हवन्ति नेरइया ॥ ४६ ॥ जे एत्थ जीववया, महु-मंस-सुराइलोलुया पावा । ते हु मुया परलोए, हवन्ति नरएसु नेरइया ॥ ४७ ॥ केएत्थ धगधगन्ते. नरए डज्झन्ति जलियनालोहे । छिमिछिमिछिमन्तसद्दे, रुहिरवसावणारूवे ॥ ४८ ॥ नासन्ति अग्गिभीया, सुतिक्खसूईसु विद्धचलणजुया । वेयरणिजलं दटुं,, तिसाभिभूया अहिवडन्ति ॥ ४९ ॥ कर्मके सघन बन्धनसे मुक्त होता है। (३४) जीववध हिंसा है और वह जीववध भी मांसके लिए किया जाता है। तुम भी मांस खाते हो तो फिर बन्धका नाश कैसे कर सकते हो? (३५) जिह्वेन्द्रियके वशीभूत हो शरीरका पोषण करनेवाला जो नर यहाँ मांस खाता है वह मरकर तीव्र और अत्यन्त दुःखवाले नरकमें जाता है। (३६) स्नान करनेसे, मुण्डित होनेसे, दानसे तथा संन्यासियोंके विविध वेश धारण करनेसे भी मांसभक्षीका कोई उपकार नहीं होता, ऐसा कहा गया है । (३७) जो संसारी जीव परभवमें बन्धुजन थे, उन्हीं बन्धुओंको मांसखानेवाले खाते हैं। (३८) न तो वृक्षोंमें और न पृथ्वीतल पर मांस उत्पन्न होता है। अतः शुक्र-शोणितसे उत्पन्न होनेवाले इस पाप-सम्बन्धका परित्याग करो। (३९) जिन्हें जीव प्यारा है ऐसे जलचर, पक्षी एवं हरिण जैसे प्राणियोंकी हत्या की जाती है, क्योंकि इनमें मांस होता है। जो दयालु होते हैं वे उसे नहीं खाते । (४०) धान्यसे शरीर बढ़ता है और भैसके दूधसे शरीर पुष्ट होता है, फिर भी लोग अपनी माताका मांस खाते हैं । (४१) यहाँ पर आये हुए मन्दराचलके नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी (पहला नरक) है ऐसा जानो। वह तीन भागोंमें विभक्त है और एक लाख अस्सी हजार योजन इसकी मुटाई है। (४२) वहीं पर दो भागोंमें भवनवासी देव रहते हैं। तीसरे भागमें बहुत वेदनावाले नारकी जीव नियमतः रहते हैं । (४३) उसके बाद शर्करा, वालुका, पंकप्रभा, घूमा, तमा और महातमा नामकी महापृथ्वियाँ आई हैं। इनमें महाभयंकर नरक हैं । (४४) कुम्भीपाक, वैतरणी और कूटशाल्मलीसे युक्त नरक होते हैं। उस्रोको धारके समान तीक्ष्ण असिपत्रके वन भी वहीं होते हैं । (४५) दुर्गन्ध एवं दु स्पर्शसे युक्त तथा चन्द्र एवं सूर्यसे रहित होनेके कारण ये विशेष अन्धकाराच्छन्न होते हैं। पापाचरण करनेवाले इन नरकों में नारकी रूपसे पैदा होते हैं। (४६) जो यहाँ जीवका वध करनेवाले तथा मधु, मांस एवं सुरामें अत्यन्त लोलुप पापी होते हैं वे मर करके दूसरे जन्ममें नरकोंमें नारकी होते हैं। (४७) कितने ही नारकी जीव दहकते हुए, आगकी ज्वालाओंके समूहसे व्याप्त, छम-छम शब्द करते हुए तथा रुधिर एवं चरबीके कीचड़से पटी हुई भूमिवाले नरोंमें जलते हैं । (५८) अग्निसे भयभीत यदि वे भागते हैं तो अत्यन्त तीक्ष्ण सूइयोंसे एनके दोनों पैर बींध जाते हैं। वैतरणीनदीके जलको देखकर तृषासे अभिभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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