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२६. ३३] २६. सीया-भामण्डलुप्पत्तिविहाणं
२१९ हिण्डन्तो चिय पुहइं, साहु दट्ठ ण अजगुत्तं सो । पणमइ कयञ्जलिउडो, सुणइ य धम्मं जिणुद्दिट्ट ।। १९ ॥ सोऊण धम्मनिहसं, वइरागुप्पन्नजायसंवेगो । गेण्हइ सङ्गविमुक्कं, पबजं गुरुसयासम्मि ॥ २० ॥ गिम्हे आयावेन्तो. चिट्टइ सिसिरे निसासु एगन्ते । वासारत्तं पि मुणी, गमइ सया पवयगुहत्थो ॥ २१ ॥ घोरं तवोविहाणं, बारसरूवं मुणी पकुबन्तो । सीया-ऽऽयवदुहिओ वि य, कन्तामोहं न छड्डइ ॥ २२ ॥ तावऽच्छउ संबन्धो, एसो अन्नं सुणेहि मगहवई ! । अन्तरजोयनिबद्धा, ठिया कहा रयणमाल व ॥ २३ ॥ अणरण्णे रज्जत्थे, अह कुण्डलमण्डिओ महासुहडो । दुग्गमपुरट्ठिओ सो, देसं सबं विणासेइ ॥ २४ ॥ अणरण्णसन्तिए जे, सुहडे मारेइ ते बलुम्मत्तो । निद्दय-निराणुकम्पो, देसविणासं कुणइ सवं ॥ २५॥ घेत्तणमचायन्तो, अणरण्णो तं अवट्टियं विसमे । रतिंदिया य निर्दे, न लहइ चिन्तापरिग्गहिओ ॥ २६ ॥ दट्टण दुक्खियं तं, अणरण्णं तत्थ भणइ सामन्तो। नामेण बालचंदो, सामिय! वयणं निसामेहि ॥ २७ ॥ नइ बन्धिऊण समरे, इह कुण्डलमण्डियं न आणेमि । तो एव निग्गओ हं, होहामि इमा पइन्ना मे ॥ २८ ॥ गन्तूण तेण तुरियं, सहसा चउरङ्गबलसमग्गेणं । वीसत्थओ पमाई, अह कुण्डलमण्डिओ बद्धो ॥ २९ ॥ विद्धसेऊण पुरं, सिग्धं पडियागओ नियं ठाणं । दावेइ बालचन्दो, बद्धं सत्त' नरिन्दस्स ॥ ३०॥ तो तेण सुभिच्चेणं, पुहई सत्था कया निरवसेसा । परितुट्ठो अणरण्णो, सम्माणं से तओ कुणइ ॥ ३१ ॥ . मुक्को य बन्धणाओ, अह कुण्डलमण्डिओ परिभमन्तो । दट्टण मुणिवरिन्द, कयविणओ पुच्छए धम्मं ॥ ३२ ॥ मांसविरत्युपदेशः, मांसभक्षणे नरकवेदनावर्णनं च
जो न कुणइ पवज्जं, भयवं ! गिहवासपासपडिबद्धो । सो किह संसाराओ, मुच्चिहिइ अणाइमन्ताओ? ॥ ३३ ॥ हुए उसने आर्यगुप्त नामके एक साधुको देखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर जिनोपदिष्ट धर्मका श्रवण किया । (१९) धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। संवेगशील उसने गुरुके पास आसक्तिसे रहित ऐसी दीक्षा अंगीकार की । (२०) ग्रीष्ममें वह मुनि सूर्यकी धूपमें शरीरको तपाता था, शिशिरमें रात्रिके समय एकान्तमें बैठता था और पर्वतकी गुफामें रहकर वर्षाकाल व्यतीत करता था। (२१) वह मुनि बारह प्रकारका घोर तपोविधान करने तथा सर्दी एवं गरमीसे दुःखित होने पर भी पन्नीके मोहको नहीं छोड़ सका । (२२)
हे मगधनरेश! यह वृत्तान्त यहीं पर छोड़ें। रत्नमालाकी भाँति भीतरी सम्बन्धसे जुड़ी हुई एक दूसरी कथा है। उसे तुम सुनो । (२३) जब अनरण्य राज्य करता था तब महासुभट कुण्डलमण्डित दुर्गम ऐसे नगरमें रहकर सारे देशका विनाश करता था । (२४) अनरण्य से सम्बन्ध रखनेवाले जितने सभट थे उन्हें बलसे उन्मत्त उसने मार डाला। निर्दय और अनुकम्पा रहित वह सारा देश उजाड़ने लगा । (२५) विषम प्रदेशमें अवस्थित उसे पकड़नेमें असमर्थ अनरण्य चिन्तित होकर रातदिन नींद नहीं लेता था। (२६) उस अनरण्यको दुःखित देखकर बालचन्द्र नामके सामन्तने कहा कि, हे स्वामी! मेरा कहना आप सुनें । (२७) यदि युद्धमें बाँधकर कुण्डमण्डितको मैं यहाँ न लाऊँ तो मैं देश त्याग करूँगायह मेरी प्रतिज्ञा है। (२) शीघ्र हो समस्त चतुरंग सैन्यके साथ अचानक आक्रमण करके विश्वासमें रहे हुए और प्रमादी कुण्डलमण्डितको पकड़ लिया । (२९) नगरका विध्वंस करके शीघ्र ही अपने स्थान पर लौटे हुए बालचन्द्रने पकड़ा हुआ शत्रु राजाको दिया । (३०) तब उस सुभृत्यने समग्र पृथ्वी प्रशस्त की। इस पर परितुष्ट अनरण्यने उसका सम्मान किया । (३१)
बादमें बन्धनसे मुक्त कुण्डलमण्डितने भ्रमण करते करते एक मुनिवरको देखा। उसने विनयोपचार करके धर्मके बारेमें पूछा कि, भगवान् ! गृहवासके पाशमें बद्ध जो मध्य प्रव्रज्या अंगीकार नहीं करता वह अनादि-अनन्त संसारमेंसे कैसे मुक्त हो सकता है ? (३२-३) इस पर मुनिने कहा कि जीया और कषायोंका निग्रह करना धर्म है। इनसे ही जीव
१. वसई-प्रत्य।
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