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११२.
पउमचरियं
[९. ९७काऊण महापूर्य, वन्दित्ता जिणवरं पयत्तेणं । अह पेच्छइ दहवयणं, गायन्तं पङ्कयदलच्छं ॥ ९७ ॥ तो भणइ नागराया, सुपुरिस ! अइसाहसं ववसियं ते । जिणभत्तिरायमउलं, मेरुं पिव निश्चलं हिययं ॥ ९८ ॥ तुट्ठो तुहं दसाणण, निणभत्तिपरायणस्स होऊणं । वत्थु मणस्स इट्ट, जं मग्गसि तं पणावेमि ॥ ९९ ॥ लङ्काहिवेण सुणिउं, धरणो फणमणिमऊहदिप्पन्तो । भणिओ किं न य लद्ध, जिणवन्दणभत्तिराएण? ॥ १०० ॥ अहिययर परितुट्ठो, धरणिन्दो भणइ गिण्हसु पसत्था । सत्ती अमोहविजया, ना कुणइ वसे सुरगणा वि ॥ १०१ ॥ अह रावणेण सत्ती, गहिया अहिउञ्जिऊं सिरपणामं । धरणो विजिगवरिन्द, थोऊण गओ निययठाणं ॥ १०२ ॥ अट्ठावयसेलोवरि, मासं गमिऊण तत्थ दहवयणो । अणुचरिउ पच्छित्तं, वालिमुणिन्दं खमावेइ ॥ १०३ ॥ जिणहरपयाहिणं सो, काऊण दसाणणो तिपरिवारे । पत्तो निययपुरवरं, थुक्वन्तो मङ्गलसएसु ॥ १०४ ॥ झाणाणलेण कर्म, दहिऊण पुराकयं निरवसेसं । अक्खयमयलमणहरं, वाली सिवसासयं पत्तो ॥ १०५ ॥
एवंविहं वालिविचेट्टियं जे, दिणाणि सबाणि सुणन्ति तुट्ठा ।
काऊण कम्मक्खयदुक्खमोक्खं, ते जन्ति ठाणं विमलं कमेणं ॥ १०६ ॥ ।। इय पउमचरिए वालिनिव्याणगमणो नाम नवमो उद्देसो समत्तो।।
१०. दहमुहसुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरणअणरण्णपव्वज्जाविहाणं . एयं ते परिकहियं, मगहाहिव ! नं पुरा समणुवत्तं । निसुणेहि एगमणसो, भणामि जं अन्नसंबन्धं ॥ १ ॥ अष्टापदपर आ पहुँचा । (९६) बड़ी भारी पूजा करके तथा आदरपूर्वक जिनवरोंको वन्दन करके उसने कमलदलके समान नेत्रोंवाले रावणको गाते हुए देखा । (९७) इसके बाद नागराज धरणेन्द्रने कहा-'हे सुपुरुष! तुमने यह एक बहुत बड़ा साहस किया है। जिनेश्वरके ऊपर तुम्हारा भक्तिराग अतुल है और तुम्हारा हृदय मेरु पर्वतकी भाँति अविचल है। (९८) हे दशानन ! तुम जिनवरकी भक्तिमें निरत हो, इसलिए मैं तुमपर प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारे मनमें जो इष्ट वस्तु हो वह माँगो। मैं उसे हाजिर करता हूं। (९९) फणोंमें स्थित मणियों मेंसे निकलनेवाली किरणोंसे देदीप्यमान धरणेन्द्रका ऐसा कथन सुनकर लङ्काधिप रावणने कहा कि जिनेश्वरदेवके वन्दनसे तथा उनमें जो भक्तिराग है उससे मुझे क्या नहीं मिला ? अर्थात् सब कुछ मिला है। (१००) इस उत्तरसे और भी अधिक प्रसन्न होकर धरणेन्द्रने कहा कि जिससे देवगण भी वशमें किये जा सकते हैं ऐसी अमोघविजया शक्ति तुम ग्रहण करो। (१०१) इसके पश्चात् सिरसे प्रणाम करके रावणने वह शक्ति ग्रहण की। उधर धरणेन्द्र भी जिनवरेन्द्रकी स्तुति करके अपने स्थानपर चला गया। (१०२)
उस अष्टापद पर्वतके ऊपर एक मास व्यतीत करके और प्रायश्चित्त करके मुनीन्द्र वालीसे रावणने क्षमायाचना की। (१०३) चैत्यकी प्रदक्षिणा करके शतशः मंगलोंसे स्तुति करता हुआ दशानन सपरिवार अपने नगरमें आ पहूँचा। (१०४) इधर बालीने भी ध्यानरूपी अग्निसे पहलेके किये हुए कर्मोको समूल जलाकर अक्षत, निर्मल, मनोहर और शाश्वत सुखरूप मोक्षपद प्राप्त किया। (१०५) इस प्रकार वालीके सुचरितको जो तुष्ट होकर सब दिन सुनते हैं वे कर्मका क्षय करके तथा दुःखसे मुक्त हो क्रमशः विमल मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं । (१०६)
। पद्मचरितमें वालीकी निर्वाणप्राप्ति नामक नवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
मल मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं। समारतको जो तुष्ट होकर सबदिन मनोहर और शाश्वत सखाप
१०. दशमुख और सुग्रीवका प्रस्थान तथा सहस्रकिरण एवं अनरण्यकी प्रव्रज्या
गौतम गणधर श्रेणिक राजासे कहते हैं कि हे मगधाधिप ! पुराकालमें जो घटनाएँ घटी थीं, उनका वर्णन मैने . किया। दूसरी घटनाओं के बारेमें अब मैं जो कुछ कहता हूँ उसे तुम एकचित्त होकर सुनो । (१)
१-तुट्ठो य तुह-प्रत्यः। २-मंगलसएहि-प्रत्यः ।
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