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२०४ पउमचरियं
[२२. २तं पेच्छिऊण साह, नालगवक्खन्तरेण सहदेवी । रुट्टा पेसेइ नरे, धाडेह इमं पुरवराओ ॥ २॥ अन्ने वि लिङ्गिणो जे, ते वि य धाडेह मा चिरावेह । मा धम्मवयणसई, सुणिही पुत्तो महं एसो ॥ ३ ॥ एन्थन्तरे य तेहिं. नयराओ धाडिओ मुणिवरिन्दो । अन्ने वि जे पुरस्था, निच्छूढा लिङ्गिणो सबे ॥४॥ तं नाऊण मुणिवरं, कित्तिधरं कोसलस्स जा धाई । रुवइ किवालुयहियया, सुमरन्ती सामियगुणोहं ॥ ५ ॥ निसुणेऊण रुवन्ती, भणिया य सुकोसलेण केण तुमं । अम्मो परिभूय च्चिय ?, तस्स फुडं निग्गहं काहं ॥ ६ ॥ तो भणइ वसन्तलया, पुत्तय ! जो तमभिसिञ्चिउं रजे । ठविऊण य पबइओ, सो तुज्झ पिया इह पविट्टो ॥ ७॥ भिक्खट्टे विहरन्तो, जणणीए तुज्झ दुट्टपुरिसेहिं । धाडाविओ य अजं, पुत्तय ! तेणं मए रुण्णं ॥८॥ दटठण य पासण्डे, मा निबेओ य होहिइ सुयस्स । तेणं चिय नयराओ, निच्छुढा लिङ्गिणो सबे ॥९॥ उजाण-काणणाई, पुक्खरिणी-बाहियालिमाईणि । नयरस्सऽब्भिन्तरओ, तुज्झ कयाई च जणणीए ॥ १० ॥ अन्ने वि तुज्झ से, पुत्तय ! जे नरवई अइक्वन्ता । ते वि य भोत्तण महि, पवज्जमुवागया सबे ॥ ११ ॥ एएण कारणेणं, न देइ नयरस्स निग्गमं तुज्झ । मा निसुणिऊण धम्म, निक्खमिही जायसंवेगो ॥ १२ ॥ सोऊण वयणमेयं, सुकोसलो निम्गओ पुरवराओ । पत्तो य पिउसयासं, वन्दइ परमेण विणएणं ॥ १३ ॥ तं वन्दिऊण समणं, उवविट्टो सुणिय धम्मपरमत्थं । भणइ य सुकोसलो तं, भयवं! निसुणेहि मे वयणं ॥ १४ ॥ आलित्ते निययघरे, जणओ घेत्तूण पुत्तभण्डाई । अवहरइ तूरमाणो, सो ताण हियं विचिन्तन्तो ॥ १५ ॥ मोहग्गिसंपलिते, जियलोयघरे मए पमोत्तणं । निक्खन्तो नाह! तुमं, न य जुत्तं एरिसं लोए ॥ १६ ॥ तम्हा कुणह पसायं, मोहाणलदीविए सरीरघरे । निक्खममाणस्स महं, हत्थालम्बं पयच्छाहि ॥ १७॥
एवं सो अणगारो, चित्तं नाऊण निययपुत्तस्स । ताहे भणइ सुभणिओ, होउ अविरघं तुहं धम्मे ॥ १८ ॥ इसे नगरमेंसे बाहर निकालो। (२) दूसरे भो जो सन्यासी हों उन्हें भी निकाल बाहर करो। देर मत लगाओ। मेरा यह पुत्र धर्मोपदेशका शब्द न सुन पावे। (३) तब उन्होंने मुनिवरेन्द्रको नगरमेंसे बाहर निकाल दिया। नगरमें दूसरे भी जो साधु-संन्यासी थे वे सब बाहर निकाल दिये गये । (४) उस मुनिवर कीर्तिधरके बारेमें सुनकर सुकोशलकी जो सदयहृदया धाय थी वह स्वामीके गुणोंको याद करके रोने लगी । (५) उसे रोते सुनकर सुकोशलने कहा, हे माता! किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है ? उसे मैं बराबर सजा करूँगा । (६) तब बसन्तलताने कहा कि, हे पुत्र ! जिसने राज्यपर तुम्हारा अभिषेक करके और उसपर तुम्हें प्रतिष्ठित करके प्रव्रज्या ली थी उस तुम्हारे पिताने इस नगरमें प्रवेश किया था। (७) हे पुत्र ! भिक्षाके लिए विहार करते हुए उन्हें आज तुम्हारी माताने दुष्ट पुरुषों द्वारा बाहर निकाल दिया है। इसीसे मैं रोती थी। (८) पाखण्डियोंको देखकर मेरा पुत्र विरक्त न हो इसलिए वेशधारी सब साधुओंको नगरमेंसे बाहर निकाल दिया है। (९) तुम्हारी माताने तुम्हारे लिये नगरके भीतर ही वन-उपवन तथा जलाशय एवं अश्व खेलनेके मैदान आदि बनवाये हैं। (१०) हे पुत्र ! तुम्हारे वंशमें जो दूसरे भी राजा हुए हैं उन सबने पृथ्वीका उपभोग करके प्रव्रज्या अंगीकार की है। (११) धर्म सुनकर वैराग्य उत्पन्न होनेपर दीक्षा न ले लो, इसीलिए तुम्हें नगरसे बाहर नहीं जाने देती । (१२)
___यह कथन सुनकर सुकोशल नगरमेंसे बाहर निकला और पिताके पास पहुँचकर उसने अत्यन्त विनयके साथ वन्दन किया। (१३) उस श्रमणको चन्दन करके और धर्मके परमार्थको सुनकर सुकोशल बैठा और उससे कहा कि. हे भगवन ! मेरा कहना आप सुनें । (१४) अपना घर जलनेपर पिता पुत्र एवं घरके पात्र-वस्त्र आदि उपकरणोंको लेकर उनके हितका विचार करके जल्दी जल्दी बाहर निकल जाता है । (१५) हे नाथ ! मोहरूपी अग्निसे सन्तप्त जीवलोकरूपी घरमें मुझे छोड़कर
आप निकल गये-ऐसा लोकमें उचित नहीं समझा जाता । (१६) अतः आप अनुग्रह करें। मोहरूपी आगसे जलते हए मेरे शरीररूपी घरमेंसे बाहर निकलते हुए मुझे आप हाथका सहारा दें। (१७) ऐसा सुनकर उस अनगारने मनमें अपने पुत्रको पहचान लिया। फिर कहा कि तुमने अच्छा कहा। धर्म में तुम निर्विघ्न हो । (१८)
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