________________
२५.२]
२५. चउभाइविहाणं
- २१५
हेमप्पभम्मि भग्गे, बन्दिजणाइण्णघुट्टजयसदो। कन्नाएँ समं नयर, पविसरइ रहेण वीसत्थो ॥ ३२॥ तो सो पाणिग्गहणं, करेइ विहिणा जणेण परिकिष्णो । कोउयमङ्गलनिलए, परिणीओ दसरहो राया ।। ३३ ॥. परमविभूईएँ तओ, महिला घेत्तण सयलपरिवारो । पडियागओ विणीय, अणरण्णसुओ पहियकित्ती ॥ ३४ ॥ मन्ति-भड-पुरजणेणं, ठविओ पुण दसरहो महारजे । भुञ्जइ भोगसमिद्धि, सग्गे वाऽऽखण्डलो मुइओ ॥ ३५॥ संपत्थिओ य महिलं, जणओ वि ससंभमो दढधिईओ । पुणरवि रज्जाणन्दं, परितुट्ठो कुणइ सविसेसं ॥ ३६ ॥ अह केगई कयाई, भणिया अणरण्णपत्थिवसुएणं । भद्दे ! मणस्स इट्ट, जं मग्गसि तं पणामेमि || ३७ ॥ जं तइया संगामे, सारच्छगुणेण तोसिओ अयं । तस्सुवयारस्स फलं, मग्गसु मा ने चिरावेहि ॥ ३८ ॥ तो केगईऍ भणिओ. संपद नत्थेत्थ कारणं किंचि । काले जत्थ नराहिव!, मग्गिस्सं तत्थ देज्जासु ॥ ३९॥
वरजुवइसमग्गो तिबभोगाणुरत्तो, महुरसरनिणाओ गिज्जमाणो महप्पा ।
भडमउडमऊहालीढपायप्पएसो, रमइ विमलकित्ती सेसकालं नरिन्दो ॥ ४०॥ . ।। इय पउमचरिए केगइवरसंपायणो नाम चउवीसइमो उद्देसओ समत्तो।।
२५. चउभाइविहाणं अह अन्नया कयाई, देवी अवराइया सुहषसुत्ता । पेच्छइ य पवरसुमिणे, रयणीए पच्छिमे जामे ॥ १ ॥
वरकुसुमकुन्दवण्णं, सीहं सूरं तहेव रयणियरं । दळूण अह विबुद्धा, पइणो सुमिणे परिकहेइ ॥ २ ॥ पर बन्दीजनोंके द्वारा जिसकी जयध्वनि उद्घोषित की जा रही है ऐसे उसने विश्वस्त हो रथ द्वारा कन्याके साथ नगरमें प्रवेश किया। (३२) तब लोगोंसे घिरे हुए तथा कौतुक एवं मंगलके धाम रूप परिणीत दशरथ राजाने विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। (३३) इसके बाद बड़े भारी ऐश्वर्यके साथ पत्नीको लेकर विस्तृत यशवाला दशरथ सकल परिवारके सहित साकेतपुरीमें लौट आया। (३४) मंत्री, सुभट एवं नगरजनोंने पुनः दशरथको महाराज्यमें प्रतिष्ठित किया। वह मुदित होकर स्वर्गमें इन्द्रकी भाँति भोग समृद्धिका उपभोग करने लगा। (३५) दृढ़ बुद्धिवाले जनकने भी मिथिलाकी ओर उत्कण्ठाके साथ प्रस्थान किया। तुष्ट वह पुनः सविशेष रूपसे राज्य सुख मनाने लगा । (३६)
___ एक बार कैकयीसे दशरथने कहा कि, भद्रे! मनमें जो प्रिय हो वह यदि तुम माँगोगो तो मैं वह दूंगा। (३७) उस समय संग्राममें तुम्हारे सारथिपनके गुणसे मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। उस उपकारका फल तुम माँगो। विलंब मत करो। (३८) तब कैकयोने कहा कि, हे राजन् ! इस समय तो कोई माँगनेका कारण नहीं है। जब मैं माँगूंगी तब तुम देना । (३९) सुन्दर युवतियोंसे युक्त भोगोंमें अत्यन्त अनुरक्त, सुखके सरोवर में स्नान करनेवाला, जिसके गीत गाये जाते हैं, सभटोंके मुकुटमेंसे निकलनेवाली किरणें जिसका पादप्रदेश छूती हैं-ऐसा वह विमल कीर्तिवाला महात्मा राजा दशरथ शेष समय आनन्द क्रीड़ा करता था। (४०)
। पद्मचरितमें कैकयी द्वारा वरसंपादन नामक चौबीसवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
२५. चार भाई कभी रातके पिछले प्रहरमें आरामसे सोई हुई देवी अपराजिताने उत्तम स्वप्न देखे । (१) उत्तम कुन्द पुष्पके समान वर्णवाले सिंह, सूर्य एवं चन्द्रमाको देखकर वह जाग गई। उसने स्वप्नोंके बारेमें पतिसे कहा । (२) उन उत्तम स्वप्नोंको
१. महिलं-प्रत्य.। २. मिथिलानगरीम्। ३. सिग्धं-मु.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org