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पउमचरियं
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नाऊण तहाभूयं नराहिवं सीहिया महादेवी । सोयपरिग्गहियमणा, तस्स सयासं समल्लीणा ॥ सब जणस्स समक्खं, उदयं घेत्तूण सीहिया भणइ । मोचूण निययदइयं, जइ अन्नो नाऽऽसि मे हियए ।। तो नरवइस्स दाहो, उवसमउ जलेण करविमुक्केणं । एवं भणिऊण सित्तो, राया विगयज्जरो नाओ ॥ उल्हवियसबगत्तं दट्टण नराहिवं जणो तुट्टो । सीलं पसंसमाणो, भणइ अहो ! साहु ! साहु ! ति ॥ देवेहि कुसुमवुट्टी, मुक्का सुसुयन्धगन्धरिद्धिल्ला । राया वि य परितुट्टो, सीलं नाऊण महिलाए far asन्दो, निययए सीहिया महादेवी । भोगे भोत्तूण चिरं, संवेगपरायणो जाओ ॥ घुसो परिवे, सोदासं सीहियासुयं रज्जे । निक्खन्तो नरवसभो, परिचत्तपरिग्गहारम्भो ॥
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[ २२.६५
सोदासः -
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तो वि काले सया, सोदासनराहिवस्स कुलवंसे । न य केणइ परिभुत्तं, मंसं चिय अट्ठ दिवसाई ॥ कम्मोदएण सोपुण, तेसु वि दिवसेसु भुञ्जई मंसं । भाइ य सूयारवई, मंसं आणेहि मे सिग्घं ॥ तइया पुणो अमारी, वट्टर अट्टाहिया जिणवराणं । पिसियस्स अलाभेणं, माणुसमंसं च से दिनं ॥ माणुसमंसपसत्तो, खायन्तो पेउरवालए बहवे । सूयारेण समाणं, सुपण निद्धाडिओ राया ॥ तस्स ओ गुणकलिओ, कणयाभानन्दणो तहिं नयरे । अहिसितो सीहरहो, रज्जे सबंहि सुहडेहिं ॥ ७६ ॥ सीहस्स जहा मंसं, आहारो तस्स निययकालम्मि । तेणं चिय विक्खाओ, पुहईए सीहसोदासो ॥ ७७ ॥ पेच्छइ परिब्भमन्तो, दाहिणदेसे सियम्बरं पणओ । तस्स सगासे धम्मं सुणिऊण तओ समादत्तो ॥ ७८ ॥ अह भइ मुणिवरिन्दो, निसुणसु धम्मं जिणेहि परिकहियं । जेट्टो य समणधम्मो, सावयधम्मो य अणुजेट्टो ॥ ७९ ॥
दुःख देने लगा । (६४) राजाको वैसा जानकर मनमें दुःखी हो महादेवी सिंहिका उसके पास गई । (६५) पानी लेकर सिंहिकाने सत्र लोगोंके समक्ष कहा कि यदि मेरे हृदय में मेरे पतिको छोड़ दूसरा कोई नहीं था तो हाथसे विमुक्त जलसे राजाका दाह शान्त हो । ऐसा कहकर पानी छींटने पर राजा ज्वरमुक्त हो गया। (६६-७ ) जिसका सारा शरीर उपशान्त हो गया है ऐसे राजाको देखकर लोग प्रसन्न हुए और शीलकी प्रशंसा करते हुए 'साधु साधु' कहने लगे । (६८) देवोंने सुगन्धित गन्धसे समृद्ध पुष्पोंकी वृष्टि की। खीके शीलको जानकर राजा भी अत्यन्त तुष्ट हुआ । (६९) अपने पद पर सिंहिकाको स्थापित करके और चिर काल तक भोग भोगकर राजा विरक्त हुआ । ( ७० ) राजा नघुषने सिंहिकाके पुत्र सौदासको राज्य पर बिठाकर परिग्रह एवं पाप प्रवृत्तिका परित्याग करके प्रव्रज्या ली। (७१)
ऐसे समय सर्वदा से सौदास राजाके कुलमें कोई भी आठ दिन तक मांस नहीं खाता था । ( ७२ ) किन्तु कर्मके उदयसे वह उन दिनों में भी मांस खाता था । उसने बड़े रसोइयेसे कहा कि मेरे लिए जल्दी ही मांस लाओ। (७३) उस समय जिनवरोंकी अष्टाह्निका होनेसे 'अमारि' थी, अतः मांस न मिलनेसे मनुष्यका मांस उसे दिया गया । (७४) मनुष्य के मांसमें आसक्त राजा नगरके बहुत-से बालकोंको खा गया। इस पर पुत्रने रसोइयेके साथ राजाको निष्कासित किया । (७५) उस सौदासके गुणी, सोनेकी सी कान्तिवाले तथा आनन्ददायी पुत्र सिंहरथका सभी सुभटोंने राजगद्दी पर उसी नगरीमें अभिषेक किया । (७६) सिंहकी भाँति उसका (सौदासका) रोजका आहार मांस था, इसीलिए वह पृथ्वीपर सिंहसौदासके नाम से विख्यात हुआ । (७७) दक्षिण देशमें परिभ्रमण करते हुए उसने एक श्वेताम्बर साधुको देखा और प्रणाम किया। उसके पास धर्म सुनने की जिज्ञासा उसने प्रकट की । (७८) इसपर मुनिवरने कहा कि जिन द्वारा कहा गया धर्म तुम सुनो। भ्रमणधर्म १. सीहियं महादेवि - प्रत्य० । २. पौरवालकान् । ३. सूदकारः ।
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