Book Title: Paumchariyam Part 1
Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 251
________________ पउमचरियं राया महीधरो विय, नरवसभा एवमाइया बहवे । उप्पन्ना हरिवंसे, वोलीणा दीहकालेणं ॥ १० ॥ मुनिसुव्रतजिनचरितम् - - १३ ॥ I १४ ॥ १५ ।। १८ ॥ तत्थेव य हरिवंसे, उप्पन्नो पत्थवो वि हु सुमित्तो । भुञ्जइ कुसग्गनयरं, महिला पउमावई तस्स ॥ अह सासु सुत्ता, रयणीए पच्छिमम्मि जामम्मि । पेच्छइ चउदस सुमिणे, पसत्थजोगेण कल्लाणी ॥ गय वसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुम्भं । पउमसर सागर विमाण-भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥ पडिबुद्धा कमलमुही, चोद्दस सुमिणे कहेइ दइयस्स । तेण वि सा पडिभणिया, होही तुह जिणवरो पुत्तो ॥ नाव य एसाऽऽलावो, बट्टइ तावं नहाउ सयराहं । पडिया य रयणवुट्टी, उज्जोवन्ती दस दिसाओ ।। तिण्णेव य कोडीओ, अद्धं च दिणे दिणे य रयणाणं । पाडेइ धणयजक्खो, एवं मासा य पन्नरस ॥ कमलवणवासिणीहिं, देवीहिं सोहिए तओ गब्भे । अवइण्णो कयपुण्णो, कमेण जाओ जिणवरिन्दो ॥ सो तत्थ जायमेत्तो, सुरेहि नेऊण मन्दरस्सुवरिं । इन्दाइएहि हविओ, विहिणा खीरोदहिजलेणं ॥ अह तं कयाहिसेयं, सबालङ्कारभूसियसरीरं । इन्दाई सुरपवरा, धुणन्ति धुइमङ्गलसएहिं ॥ अह ते थोऊण गया, विबुहा सेणाणिओ वि जिणचन्द्रं । ठविऊण जणणिअङ्के, सो वि य देवालयं पत्तो ॥ भट्टियस्स जस्स य, जणणी वि हु आसि सुबया रज्जे । मुणिसुबओ त्ति नामं निणस्स रइयं गुरुजणेणं ॥ परिवडिओ कमेणं, रज्जं भोत्तूण सुइरकालम्मि । दट्ठूण सरयमेहं, विलिज्जमाणं च पडिबुद्धो ॥ मुणिसुबयजिणवसभो, पुत्तं ठविऊण सुबयं रज्जे । सुरपरिकिण्णो भयवं, पचइओ नरवईहि समं ॥ छट्टोववासनियमे, रायगिहे वसभदत्तनरवइणा । परमन्त्रेण य दिन्नं, पारणयं निणवरिन्द्रस्स ॥ हुआ । उससे फिर भूतदेव हुआ । (९) मनुष्यों में वृषभ के समान श्रेष्ठ महीधर राजा भी हुआ । इस प्रकार बहुतसे राजा हरिवंश में उत्पन्न हुए। उन्हें व्यतीत हुए दीर्घकाल हुआ है । (१०) १९ ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ Jain Education International ११ ॥ १२ ॥ For Private & Personal Use Only [ २१.१० १६ ॥ १७ ॥ उसी हरिवंश में सुमित्र राजा उत्पन्न हुआ। वह कुशाग्रनगरका उपभोग करता था । पद्मावती उसकी पत्नी थी। (११) सुखपूर्वक सोई हुई उस कल्याणीने रातके पिछले प्रहर में प्रशस्त योग ( मन-वचन-कर्म ) के साथ चौदह खन देखे । (१२) हाथी, वृषभ, सिंह, अभिषेक, माला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्मसरोवर, सागर, विमान भवन, रत्नोंका ढेर तथा हि-ये चौदह स्वप्न थे । (१३) कमल के समान सुन्दर मुखवाली उसने पति से चौदह स्वप्नोंके बारेमें कहा। उसने भी प्रत्युत्तर में कहा कि तुझे जो पुत्र होगा वह जिनवर होगा । (१४) ऐसा वार्तालाप हो ही रहा था कि शीघ्र ही आकाशमें से दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली रत्न-वृष्टि हुई । (१५) धनद यक्ष साढ़े तीन करोड़ रत्न प्रतिदिन गिराता था । इस प्रकार पन्द्रह मास तक उसने रत्न गिराये । (१६) सब कमलवनमें निवास करनेवाली देवियों द्वारा शुद्ध किये गये गर्भ में पुण्यशाली जिनवरेन्द्र अवतीर्ण हुए। समय का जन्म हुआ । (२७) वहाँ पर उत्पन्न होते ही देव मन्दरपर्वतके ऊपर उन्हें ले गये और इन्द्र आदिने क्षीरसागरके जलसे विधिपूर्वक स्नान कराया (१८) बादमें अभिषिक्त तथा सब तरह के अलंकारोंसे भूषित शरीरवाले उनकी इन्द्र आदि उत्तम देवोंने सैकड़ां मंगलस्तुतियों से स्तुति की । (१९) वे देव स्तुति करके चले गये । सेनापतिने भी जिनचन्द्रको माताकी गोदमें स्थापित किया फिर वह भी देवलोक में गया । (२०) चूँकि गर्भ में स्थित होनेपर राज्य में माता सुव्रतों को धारण करनेवाली हुई थी, अतः गुरुजनोंने जिनवर का 'मुनिसुव्रत' ऐसा नाम रखा । (२१) क्रमशः वे बड़े हुए। अत्यन्त दीर्घकाल पर्यन्त राज्यका उपभोग करके शरत्कालीन मेघको विलीन होते देख वे प्रतिबुद्ध हुए । (२२) जिनोंमें वृषभ के समान श्रेष्ठ मुनिसुव्रतस्वामीने पुत्र सुत्रतको राज्यपर अधिष्ठित किया । देवताओं से घिरे हुए भगवान्ने राजाओंके साथ दीक्षा ली । (२३) षष्ठोपवास (बेला) का नियम पूर्ण होनेपर वृषभदत्त राजाने उत्तम असे जिनवरेन्द्रको पारना कराया । (२४) जिनेश्वर के प्रभावसे वृषभदत्तने पाँच अतिशय प्राप्त किये। सुर एवं असुर www.jainelibrary.org

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