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२४. १०३] १४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो
१४९ देवविमानानि देवाः तत्सौख्यं चअह तत्थ देवलोए, बहुभत्तिविचित्तकन्तिकलियाई । देवाण विमाणाई, सूरं पिव पज्जलन्ताई ॥ ८९ ।। वजिन्दनील-मरगय-वेरुलियविचित्तभत्तिरम्माई । दढवियडपेढनिग्गय थम्भसहस्सोहनिवहाई ॥९० ॥ गय-वसह-सरह-केसरि-वराह-रुरु-चमरकोट्टिमतलाई । मिउपवणबलाघुम्मिय-जच्चन्तधयग्गइत्थाई ॥९१ ।। गोसीससरसचन्दण-कालागरुसुरहिधूवगन्धाइं । जलथलयकुसुमबहुबिह-कयच्चणाई विमाणाई ॥ ९२॥ गन्धबगीय-वाइय-वीणा-वरवंसमहरसद्दाई । एयारिसेसु देवा, भुञ्जन्ति महन्तसोक्खाई ॥ ९३ ॥ रयणमिव निरुवलेवा, मंस-ऽडिविवज्जिया अणोवङ्गा । देवा अगम्भजाया, अणिमिसनयणा सभावेणं ॥ ९४ ॥ समचउरंसट्टाणा, मणिमउड-विचित्तकुण्डलाभरणा । अमरवहूमज्झगया, रमन्ति रइसागरोगाढा ॥ ९५ ॥ तत्थ य सुरवहुयाओ, वियसियवरपउमसरिसवयणाओ। नयण-इसणा-ऽइरा-ऽमलथणजुयलुब्भिन्नसोहाओ ।। ९६ ॥ रत्तासोगसमुज्जल-कोमलकर-चरण-पिहुलसोणीओ । छन्दाणुवत्तणीओ, सहावमि उ-मणहरगिराओ ।। ९७ ॥ एयारिसासु समयं. देवीसु मणोहरं विसयसोक्खं । भुञ्जन्ति निययकालं, देवा धम्माणुभावेणं ॥ ९८ ।। जे वि य ते अहमिन्दा, गेविज्जाईसु वरविमाणेसु । उवसन्तमोहणिज्जा, सोक्खमणन्तं अणुहवन्ति ।। ९९ ॥ सिद्धालयम्मि पत्ता, समणा जे सबसङ्ग उम्मुक्का । ते तत्थ अणन्तसुह, अणन्तकालं अणुहवन्ति ।। १०० ॥ सयलम्मि वितेलोके, न होइ नरा-ऽमराण विसयमुहं । तं सिद्धाणन अग्घइ, अणन्तकोडीण भागम्मि ॥ १०१ ॥ देवाण माणुसाण य, जं सोक्खं होइ सयलजियलोए । तं सबं धम्मफलं, जिगवरवसहेहि परिकहियं ॥ १०२ ।। देवत्तं इन्दत्तं, अहमिन्दत्तं च जं च सिद्धत्तं । तं सवं मणुयभवे, जीवा धम्मेण पावन्ति ॥ १०३ ॥
देवलोकमें देवोंके अनेक प्रकारको विचित्र शोभासे युक्त तथा सूर्यकी भांति देदीप्यमान विमान होते हैं। (CE) वन, इन्द्रनील, मरकत एवं वैडूर्यकी विचित्र रचनाके कारण रम्य; मजबूत और विशाल पीठिकामेंसे उठे हुए हजारों स्तम्भोंसे समृद्ध कृत्रिम, हाथी, वृषभ, सिंह, केसरी, वराह, मृग एवं चमरीगायके बने हुए आसनवाले, मृदु पवनके चलनेसे कम्पित और डोलती हुई पताकाओं रूपी अग्रहस्तवाले रसयुक्त गोशीर्षचन्दन व कालागुरुकी सुगन्धित धूपसे सुरभित और जल एवं स्थल पर उगनेवाले नानाविध पुष्पोंसे पूजित तथा गन्धर्वो के गाने बजाने और उत्तम वीणा व बंसीके मधुर शब्दोंसे युक्त वे विमान होते हैं। ऐसे विमानोंमें देव बड़े बड़े सुखोंका उपभोग करते हैं। (९०-९३) रत्नको भाँति अलिप्त, मांस एवं अस्थिसे रहित, अनवद्य शरीरवाले, गर्भसे पैदा न होनेवाले तथा स्वभावसे निमेषशून्य आँखोवाले देव होते हैं । (६४) समचतुरस्र संस्थानवाले, मणिमय मुकुट, विचित्र कुण्डल तथा आभूषणोंसे अलंकृत वे देवकन्याओंके बीचमें स्थित हो रतिके सागरमें अवगाहन करके आनन्दानुभव करते हैं। (९५) वहाँ खिले हुए सुन्दर कमलोंके समान मुखवाली, निर्मल नेत्र दाँत तथा अधरवाली, विकसित दोनों स्तनोंके कारण शोभान्वित, लाल कमलके समान उज्ज्वल कान्तिवाली, कोमल हाथ-पैरोंसे युक्त तथा मोटे नितम्ब प्रदेशवाली, इच्छानुसार कार्य करनेवाली, स्वभावसे मृदु तथा मनोहर वाणी बोलनेवाली देवियाँ होती हैं। ऐसी देवियोंके साथ देव अपने अपने पुण्यके अनुसार निश्चित समय तक मनोहर विषय-सुखका अनुभव करते हैं। (९६-९८) |वेयक आदि उत्तम विमानोंमें जिनका मोह उपशान्त हो गया है ऐसे जो अहमिन्द्र होते हैं वे अनन्त सुखका उपभोग करते हैं। (९९) सब प्रकारके संगोंसे उन्मुक्त जो श्रमण सिद्धधाममें पहुँचते हैं वे वहाँ अनन्त कालतक अनन्त सुखका अनुभव करते हैं। (१००) समग्र तीनों लोकोंमें मनुष्य एवं देवाका जो विषयसुख होता है वह सिद्धोंके सुखके अनन्त करोड़वें जितने भागके भी योग्य नहीं है । (१०१) सम्पूर्ण जीवलोकमें देव एवं मनुष्योंको जो सुख होता है वह सब धर्मका ही फल है ऐसा उत्तम जिनवरोंने कहा है । (१०२)
जो देवत्व, इन्द्रत्व, अहमिन्द्रत्व तथा सिद्धत्व है वह सब धर्मके कारण जीव मनुष्यभवमें प्राप्त करते हैं। (१०३) जैसे पक्षियोंका राजा गरुड़ और सब पशुओंका राजा सिंह है वैसे ही संसारी जीवोंका राजा मनुष्य है। वह गुणोंके
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