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पउमचरियं
- [१५. ९४पवणंजए नियत्ते, दोसु वि सेन्नेसु होइ आणन्दो । बहुखाण-पाण-भोयण-सएसु लोओ समारद्धो ॥ ९४ ॥ सबम्मि सुपडिउत्त, सुतिहि-सुनक्खत्त-करण-लग्गम्मि । वत्तं पाणिग्गहणं, कन्नाएँ समं कुमारस्स ॥ ९५ ॥ वत्तम्मि य वारिज्जे, उभओ सम्माणदाणकयविभवा । तत्थेव मासमेगं, अच्छन्ति महिन्द-पल्हाया ॥ ९६ ॥ अह ते अवियोहमणा, अन्नोन्नाभासणाइ काऊणं । विज्जाहररायाणो, निययपुराई समणुपत्ता ॥ ९७ ॥ हयगय-रहपरिकिण्णो, ऊसियधय-विजय-वेजयन्तीहिं । पवणंनओ पविट्ठो, सपुरं चिय अञ्जणासहिओ ॥ ९८॥ दिन्नं से वरभवणं, मणिकोट्टिम-सालिभञ्जियाकलियं । अह सा महिन्दतणया, तत्थ पविट्ठा गमइ कालं ॥ ९९ ॥
परभवजणियं जं दुक्कयं सुक्कयं वा, उवणमइह लोए सोक्ख-दुक्खावहं तं । चउगइभयभीया जायसंवेगसद्रा, विमलहिययभावा होह धम्मेक्कचित्ता ॥ १०० ॥
॥ इय पउमचरिए अक्षणासुन्दरीवीवाहविहाणो नाम पन्नरसमो उसओ समत्तो।।
१६. पवणंजय-अंजणासुंदरीभोगविहाणाहियारो अञ्जनायास्त्यागः परिदेवनं चसरिऊण मिस्सकेसी-वयणं पवणंजएण रुटेणं । चत्ता महिन्दतणया, दुक्खियमणसा अकयदोसा ॥ १ ॥ विरहाणलतवियङ्गी, न लभइ विद्दाणलोयणा निदं । वामकरधरियवयणा, वाउकुमार विचिन्तन्ती ॥ २ ॥ उक्कण्ठिय ति गाढं, नयणजलासित्तमलिणथणजुयला । हरिणी व वाहभीया, अच्छइ मग्गं पलोयन्ती ॥ ३ ॥
बुद्धिशाली प्रह्लाद एवं महेन्द्रने सैकड़ों और हजारों ऐसे अनेक उपदेश देकर कुमार पवनंजयको वापस लौटाया। (९३) पवनंजयके लौटने पर दोनों सेनाओंमें आनन्द छा गया। नानाविध खानपान और सैकड़ों प्रकारके भोजनसे लोगों ने आनन्द मनाया। (९४) सब भलीभाँति व्यवस्थित होने पर शुभ दिन, नक्षत्र, करण एवं लग्नमें कन्याके साथ कुमारका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। (९५) विवाह पूर्ण होने पर दान एवं वैभव द्वारा एक-दूसरेका सम्मान करके महेन्द्र
और प्रहाद वहीं एक मास तक ठहरे। (९६) इसके बाद अविभक्त मनवाले वे दोनों विद्याधर राजा एक दसरेके साथ परामर्श करके अपने अपने नगरमें आ पहुँचे। (९७) घोड़े, हाथी एवं रथसे घिरे हुए पवनंजयने ध्वजा एवं विजय-वैजयंती पताका फहराते हुए अंजनाके साथ अपने नगरमें प्रवेश किया। (९८) मणिसे खचित तल वाला तथा शालभंजिका पुतलियोंवाला एक उत्तम महल उसे दिया गया। महेन्द्रकी पुत्री अंजना उसमें प्रवेश करके काल बिताने लगी। (९९) परभवमें जो पाप या पुण्य किया होता है वह इस लोकमें दुःख अथवा सुखका कारण उपस्थित करता है, किन्तु चारों गतिके भयसे भीत, वैराग्य और श्रद्धासे सम्पन्न तथा हृदयके विमल भाववाले मनुष्य धर्ममें ही एकचित्त होते हैं।
॥ पद्मचरितमें 'अंजनासुन्दरीका विवाह-विधान' नामक पन्द्रहवाँ उद्देश समाप्त हुआ ॥
१६. पवनंजय और अञ्जनासुन्दरीका भोग-विधान मिश्रकेशीके वचनको याद करके रुष्ट पवनंजयने निर्दोष और दुःखित मनवाली महेन्द्रकी पुत्री अंजनासुन्दरीका परित्याग किया। (१) विरहाग्निसे तप्त शरीरवाली, फीकी आँखोंवाली तथा बाँये हाथपर सिर थामे हुई वह वायुकुमारके बारेमें सोचती हुई नींद नहीं लेती थी। (२) अत्यन्त उत्कण्ठित तथा आँसुओंसे सींचे जानेके कारण मलिन स्तनोंवाली वह बाघसे डरी हुई हिरनीकी भाँति रास्ता देखती हुई बैठी रहती थी। (३) जिसके सब अंग अत्यन्त क्षीण हो गये थे तथा
१. वीवाहे। २. स्वस्वामिनं पवनञ्जयम् इत्यर्थः ।
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