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पउमचरियं
[२०.४७विजओ य मिहिल वप्पा, बउलदुमो अस्सिणी नमिजिणिन्दो। मयहाहिवई ! तुझं, समागमं देन्तु धम्मस्स२१ ॥४७॥ सोरियपुरं तु एत्तो. समुद्दविजओ सिवा य उज्जेन्तो । चित्ता य रिट्ठनेमी, नरिन्द! तुह मङ्गलं देन्तु२२ ॥४८॥ वाणारसी विसाहा. पासो वम्मा य आससेणो य । अहिछत्ता बाहिरओ, तह मङ्गलकारयाणि सया२३ ॥४९॥ सिद्धत्यो कुण्डपुरं, सरलो पियकारिणी य हत्थो य । भयवं वीरनिणिन्दो, देन्तु सया मङ्गलं तुज्झ२४ ॥५०॥ अट्ठावयम्मि उसभो, सिद्धो चम्पाएँ वासुपुज्जजिणो। पावाएँ वद्धमाणो, नेमी उज्जेन्तसिहरम्मि ॥ ५१ ॥ अवसेसा तित्थयरा, सम्मेए निव्वुया सिवं पत्ता । जो पढइ सुणइ पुरिसो, सो बोहिफलं समजेइ ॥ ५२ ॥ तीर्थकराणां राज्यर्द्विः देहवर्णाश्चसन्ती कुन्थू य अरो, तित्थयरा चक्वट्टिणो आसि । सेसा पुण जिणवसभा, हवन्ति सामन्नरायाणो ॥ ५३ ॥ चन्दाभो चन्दनिभो, बीओ पुण पुप्फ़दन्तजिणवसभो । कुसुमपियङ्गुसवण्णो, हवइ सुपासो विगयमोहो ॥ ५४ ॥ वरतरुणसालिवण्णो, पासो नागिन्दसंथुओ भयवं । पउमाभो पउमनिभो, वसुपुज्जो किंसुयसुवष्णो ॥ ५५ ॥
अञ्जणगिरिसरिसनिभो, हवइ य मुणिसुबओ तियसनाहो । बरहिणकण्ठावयवो, नेमिजिणो जायवाणन्दो ॥ ५६ ॥ मुनिसुव्रत जिनेन्द्र तुम्हारे पाप-मलका नाश करें। २१. हे मगधाधिपति ! विजय पिता, मिथिला नगरी, वप्रा माता, बकुल वृक्ष, अश्विनी नक्षत्र और जिनेन्द्र नमिनाथ तुम्हें धर्मका समागम दें। २२. हे नरेन्द्र ! शौरिपुर नगरी, समुद्रविजय पिता, शिवा माता, उज्जयन्त (गिरनार ) पर्वत, चित्रा नक्षत्र और अरिष्टनेमि जिन तुम्हें मंगल प्रदान करें। २३. वाराणसी नगरी, विशाखा नक्षत्र, पार्श्वनाथ जिनेश्वर, वामा माता, अश्वसेन पिता और अहिच्छत्राका वायभाग-ये तुम्हारे लिए सर्वदा मंगलकारी हो। २४. सिद्धार्थ पिता, कुण्डपुर नगर, सरल (शाल ?) वृक्ष, प्रियकारिणी (त्रिशला) माता, हरत नक्षत्र और वीर जिनेन्द्र तुम्हें सदा मंगल प्रदान करें। (२७५०)
अष्टापद पर्वतपर ऋषभदेव, चम्पामें वासुपूज्यजिन, नेमिनाथ उज्जयन्त पर्वतके शिखरपर तथा वर्धमानस्वामी पावापुरीमें सिद्ध हुए। (५१) बाकीके तीर्थकर सम्मेतशिखरपर मुक्त होकर मोक्षमें पहुंचे हैं। जो पुरुष इसे पढ़ता है और सुनता है वह सम्यक्त्वका फल प्राप्त करता है । (५२)
शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ तीर्थकर चक्रवर्ती थे। बाकीके जिनेश्वर सामान्य राजा थे। (५३) चन्द्रप्रभ और दूसरे पुष्पदन्त जिनेश्वर चन्द्रकी-सी कान्तिवाले थे। मोहका नाश करनेवाले सुपार्श्वजिन प्रियंगुके पुष्पके जैसे थे। (५४) नागेन्द्र द्वारा स्तुति किये गये पार्श्वनाथ भगवान् उत्तम और अपक्व (तरुण) शालिके समान वर्णवाले थे। पद्मप्रभ पद्मके जैसे वर्णके और वासुपूज्य किंशुकके जैसे वर्णके थे। (५५) देवोंके भी नाथ ऐसे मुनिसुव्रतस्वामी अंजनगिरिके जैसे वर्णवाले थे। यादवोंको आनन्द देनेवाले नेमिजिन मोरके कण्ठके भागके जैसे वर्णवाले थे। (५६) बाकीके तीर्थकर तपाये हुए सोनेके जैसे वर्णवाले कहे गये हैं। मल्लिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी' और वासुपूज्य स्वामी-कुमारावस्थामें
१. म. महावीरके विवाहका सर्वप्रथम उल्लेख प्रथम भद्रबाहुकृत 'कल्पसूत्र में आता है उसके पहलेके किसी आगममें नहीं आता। भगवतीसूत्रमें जमालिको कथा विस्तारसे आती है, पर वहाँ भी उसकी आठ पनियोंमें वर्धमान महावीरकी पुत्रीका न तो उल्लेख है और न जमालिको माता वर्धमान महावीरकी वहन थी ऐसा कोई निर्देश है। स्थानांगसूत्रके पाँचवें स्थानके अन्तमें पाँच तीर्थकर-वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श और महावीरने फुमारवासमें रहकर दीक्षा ली थी और समवायांगके १९वें अंगमें उनीस तीर्थंकरोंने अगारवासमें रहकर दीक्षा ली थी ऐसा उल्लेख है। इन दोनों उल्लेखोंको साथमें रखकर देखनेसे यही फलित होता है कि पूर्वोक्त पाँच बालब्रह्मचारी थे, जवकि अवशिष्ट उन्नौस विवाहित थे।
आचार्य हेमचन्द्र त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितके वासुपूज्यचरितमें स्थानांगके, उपर्युक्त स्थानमें उल्लिखित पाँच जिनों में से श्री महावीर सिवायके चारको अविवाहित कहते हैं
मलिनेमिः पार्श्व इति भाविनोऽपि त्रयो जिनाः। अकृतोद्वाह-साम्राज्या: प्रजिष्यन्ति मुक्तये ॥ १.३॥
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