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पउमचरियं
[२०. १६००
एए भरहाहिबई, बारस चक्की मए समक्खाया। सेणिय ! पुण्णविवार्य, दावन्ति जणस्स पच्चक्ख ॥ १६० ॥
पुण्य-पाप-फलमगिरिसिहरसमेसु नरा, भवणेसु वसन्ति जं सया सुहिया । तं धम्मदुमस्स फलं, सचं इह पायडं लोए ॥ १६१ ॥ छिड्सयमण्डिएसु, घरेसु धण-धन्नविप्पमुक्केसु । जं परिवसन्ति पुरिसा, तं पावदुमस्स हवइ फलं ॥ १६२ ।। तुरएसु कुञ्जरेसु य, चलचामरमण्डिएसु विविहेसु । वच्चन्ति जं नरिन्दा, तं धम्मदुमस्स हबइ फलं ॥ १६३ ॥ तण्हा-छुहाकिलन्ता, दुखं सी-उण्हपरिगयसरीरा । वच्चन्ति य पाएमुं, तं सबं पावरुक्खफलं ॥ १६४ ॥ अट्ठारसगुणकलियं, सोवण्णियभायणेसु वरभत्तं । भुञ्जन्ति जं नरिन्दा, तं सबं पुण्णरुक्खफलं ॥ १६५ ॥ रसवजियं च भत्तं, घडखप्परथल्लियासु य विदिन्नं । नं भुञ्जन्ति कुभत्तं, तं पावदुमस्स चेव फलं ॥ १६६ ॥ तित्थयर चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवमाईया । जे होन्ति महापुरिसा, तं धम्मदुमम्स होइ फलं ॥ १६७ ॥ धग्मा-ऽधम्मतरूणं, फलमेयं वणियं समासेणं । एत्तो सुणाहि सेणिय!, जम्मं बल-वासुदेवाणं ॥ १६८ ।। वासुदेवाः तत्सम्बद्धानि स्थानकानि च विविधानिनागपुरं साएया, सावत्थी तह य होइ कोसम्बी । पोयणपुर सीहपुर, सेलपुरं चेव कोसम्बी ॥ १६९ ।। पुणरवि पोयणपुरं, इमाणि नयराणि वासुदेवाणं । आसी कमेण परभवे, सुरपुरसरिसाइ सबाई ॥ १७० ॥ पढमो य विस्सभूई, पवयओ तह य हवइ धणमित्तो । सागरदत्तो वि तओ, पियमित्तो ललियमित्तो य ॥ १७१ ॥ तह य पुणबसुनामो, नवमो उण होइ गङ्गदत्तो उ । आसि मुणी गयजम्मे, सबै वि य केसवा एए ।। १७२ ॥ पढमस्स गवापडणं, जुज्झन्तं महिलियाहरणहेउं । उज्जाणरण्णमरणं, हवइ य वणकीलणं चेव ॥ १७३ ।।
भरतक्षेत्रके अधिपति इन बारह चक्रवर्तियोंके बारेमें मैंने कहा । हे श्रेणिक ! ये पुण्यका फल प्रत्यक्ष रूपसे दिखाते हैं। (१६०)
पर्वतके शिखरके समान ऊँचे भवनोंमें सदा सुखपूर्वक लोग रहते हैं वह धर्मरूपी वृक्षका फल है। इस लोकमें यह सब प्रत्यक्ष है। (१६१) सैकड़ों छिद्रोंसे मण्डित और धन धान्यसे रहित घरों में जो पुरुष रहते हैं वह पापरूपी वृक्षका फल है। (१६२) विविध प्रकारके घोड़े और हाथियों पर तथा डुलाते हुए चामरोंसे मण्डित हो राजा जो परिभ्रमण करते हैं वह धर्मरूपी वृक्षका फल है। (१६३) प्यास और भूखसे पीड़ित तथा सर्दी और गर्मीसे व्याप्त शरीरवाले जो लोग दुःखके साथ पैदल चलते हैं वह सब पापवृक्षका फल है। (१६४) सोनेके पात्रोंमें अठारह प्रकारके गुणोंसे युक्त उत्तम भोजन राजा जो करते हैं वह सब पुण्यवृक्षका फल है । (१६५) घड़े, खप्पर (घड़ेका टुकड़ा) और थालियों में जो रसहीन, फेंका हुआ और खराब अन्नवाला भोजन लोग खाते हैं वह पापवृक्षका ही फल है। (१६६) तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि जो महापुरुष होते हैं वह धर्मवृक्षका फल है । (१६७) हे श्रेणिक ! मैंने धर्म एवं अधर्मका यह फल संक्षेपमें कहा। अब बलदेवों और वासुदेवोंके जन्मके बारे में सुनो । (१६८) _ नागपुर, साकेत, श्रावस्ती, सिंहपुर, शैलपुर, कौशाम्बी तथा पोतनपुर-देवनगरके समान ये सब नगर पूर्वभवमें क्रमशः वासुदेवोंके थे । (१६९-१७०) पहला विश्वभूति, उसके बाद पर्वतक, उसके पश्चात् धनमित्र, उसके अनन्तर सागरदत्त, विकट, प्रियमित्र, ललितमित्र तथा पुनर्वसु नामका और नवाँ गंगदत्त-सब वासुदेवोंके गत जन्ममें ये नाम थे। (१७१-१७२) पहलेका गायसे पतन, उसके पश्चात् युद्ध, द्यूत,' स्त्रीके अपहरणका कारण, उद्यान-भरण्यमें
१. घटकर्परस्थालिकासु। २. मूलमें 'चूत' शब्द नहीं है, किन्तु नौकी संख्या पूरी न होनेसे इतर प्रन्यों के आधार पर मूलमें 'धूत' शब्द जोड़ दिया है।
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