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२०. १५६] २० तित्थयर-चक्कवट्टीबलदेवाइभवाइट्ठाणकित्तणं
१९३ रूवगुणसालिणोओ, दुहियाओ अट्ट तस्स कन्नाओ । नेच्छन्ति हि भत्तारं, खेयरवसहेहि हरियाओ ॥ १४४ ॥ उवलभिय आणियाओ, पबज गेण्हिऊण सबाओ । अह पच्छिमम्मि काले, उववन्नाओ य सुरलोए । १४५ ॥ जे वि य ते अट्ठ जणा, ताण विओगे उ खेयरकुमारा । निविण्णा पवइया, तियसविमाणुत्तमं पत्ता ।। १४६ ॥ पडिबुद्धो चकहरो, दुहियाहेउम्मि जायसंवेगो। पउमस्स देइ रज्जं, निक्खन्तो विण्हुणा समयं ॥ १४७ ।। समणो वि महापउमो, काऊण तवं महागुणसमिद्धं । पत्तो इसिपब्भारं, अर-मल्लिजिणन्तरे धीरो९ ॥ १४८ ॥ आसी महिन्ददत्तो, विजयपुरे नरवई महिड्डीओ । नन्दणमुणिस्स सीसो, होऊण गओ य माहिन्दं ॥ १४९ ॥ चइऊण य कम्पिल्ले, हरिकेउनराहिवस्स वप्पाए । जाओ च्चिय हरिसेणो, चक्कहरो पुहइविक्खाओ ॥ १५० ॥ काऊण महिं सबं, जिणचेइयमण्डियं च पबइओ । मुणिसुवयस्स तित्थे, सिद्धिगओ कम्मपरिमुक्को १० ॥ १५१ ॥ अमियप्पभो नरिन्दो, रायपुरे मुणिसुहम्मसीसत्तं । काऊण वम्भलोय, पत्तो तव-संजमगुणेणं ॥ १५२ ॥ तत्थ चुओ रायपुरे, जसमइदेवीएँ नन्द्रणो जाओ। जयसेणो चक्कहरो, समत्तभरहाहिवो सूरो ॥ १५३ ॥ संवेगजणियभावो. दिक्खं जिणदेसियं गहेउं जे । कम्मट्टनिट्ठियट्ठो, नमि-नेमिजिणन्तरे सिद्धो११ ॥ १५४ ॥ वाणारसीऍ पुचिं तिलिङ्गसमणस्स पायमूलम्मि । संभूओ पवइओ, कुणइ तवं बारसवियप्पं ॥ १५५ ॥ तत्तो समाहिबहुलं, कालं काऊण कमलगुम्मम्मि । जाओ सुरवरवसहो, ललियङ्गय-कुण्डलाभरणो ॥ १५६ ॥ सो तत्थ वरविमाणे, सुरगणियासहगओ महिड्डीओ । भुञ्जइ मणोभिरामं, विसयसुहं उत्तमगुणोहं ॥ १५७ ।। चइऊण विमाणाओ, बम्भरहनराहिवस्स महिलाए । जाओ य बम्भदत्तो, कम्पिल्ले पुप्फचूलाए ॥ १५८ ॥
भोत्तण भरहवासं. काऊण य विरइवजिओ कालं । सत्तमखिई पविट्ठो, जिणन्तरे नेमि-पासाणं १२ ॥ १५९ ॥ थी। विद्याधरोंके द्वारा अपहृत वे अपना कोई पति हो ऐसा नहीं चाहती थीं । (१४४) विद्याधरोंसे प्राप्त करके लाई गई उन सबने प्रव्रज्या ली। मरनेके बाद वे देवलोकमें उत्पन्न हुई। (१४५) उनके वियोगमें जो आठ खेचरकुमार थे वे भी निर्विण्ण होकर प्रबजित हुए। उन्होंने उत्तम देवविमान प्राप्त किया। (१४६) पुत्रियों के कारण संवेगयुक्त चक्रवर्ती प्रतिबुद्ध हुआ। पद्मको राज्य देकर उसने विषणुके साथ दीक्षा ली। (१४७) धीर महापद्म श्रमणने भी महान गुणोंसे समृद्ध तप करके अरनाथ और मल्लीनाथ जिनोंके बीचके समयमें ईषत्प्राग्भार (मोक्ष) स्थान प्राप्त किया । (१४८)
विजयपुरमें महेन्द्रदत्त नामका एक बड़ी ऋद्धिवाला राजा था। नन्दनमुनिका शिष्य होकर वह माहेन्द्र देवलोकमें गया ।(१४९) वहाँसे च्युत होकर काम्पिल्यमें हरिकेतु राजाकी वप्रा नामकी स्त्रीसे हरिषेण नामका पृथ्वीमें विख्यात चक्रवर्ती हुआ। (१५०) समग्र पृथ्वीको जिनचैत्योंसे मण्डित करके वह प्रवजित हुआ और कर्मसे विमुक्त होकर मुनिसुव्रतस्वामीके तीर्थमें मोक्षमें गया । (१५१)
राजपुरमें अमितप्रभ राजाने सुधर्मा नामक मुनिका शिष्यत्व अंगीकार किया। तप एवं संयमके गुणसे उसने ब्रह्मलोक प्राप्त किया। (१५२) वहाँ से च्युत होकर उसी राजपुरमें यशोदेवीका वीर पुत्र जयसेन चक्रवर्ती समस्त भरतक्षेत्रका स्वामी हुआ। (१५३) संवेगजनित भावोंसे युक्त उसने जिनेश्वरद्वारा उपदिष्ट दीक्षा लो और आठों कर्मोका नाश करके कृतकृत्य वह नमिनाथ तथा नेमिनाथ इन दो जिनोंके बीचके समयमें मोक्षमें गया। (१५४)
वाराणसीमें त्रिलिंग मुनिके चरणों में सम्भूतने प्रव्रज्या ली। वह बारह प्रकारका तप करने लगा। (१५५) समाधिसे युक्त मरण प्राप्त करके कमलगुल्म नामक विमानमें सुन्दर बाजूबन्द और कुण्डलके अलंकारोंसे अलंकृत वह वृषभके समान उत्तम देव हुआ। (१५६) उस उत्तम विमानमें महान ऋद्धिवाला वह देव-गणिकाओंसे युक्त हो हृदयको आनन्द देनेवाला
और उत्तम गुणसमूहसे सम्पन्न विषयसुखका उपभोग करने लगा। (१५७) उस विमानमेंसे च्युत होने पर वह काम्पिल्यनगरमें ब्रह्मारथ राजाकी पत्नी पुष्पचूलासे ब्रह्मदत्तके रूपमें पैदा हुआ। (१५८) भरतक्षेत्रका उपभोग करके वैराग्यसे रहित बह मरकर नेमिनाथ और पार्श्वनाथके बीचके समयमें सातवीं पृथ्वी (सातवें नरक) में प्रविष्ट हुआ। (१५९)
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