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पउमचरियं
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हाओ कयवकिम्मो, सबालंकारभूसियसरीरो । सीहासणे निविट्टो, दिट्टो देवेहि चक्कहरो ॥ एतो मणन्ति देवा तुज्झ इमं सुन्दरं परमरुवं । एक्कोऽत्थ नवरि दोसो, जेणं खणभंगुरसहावं ॥ जामदरस च्चिय, आसि तुमं जोबणाणुरुवसिरी । सा कह खणेण हीणा, सोहा अइतुरियवेगेणं ॥ सोऊण देवत्रयणं, माणुसनम्मं असासयं नाउं । निक्खमइ चक्कबट्टी, कुणइ य घोरं तवोकम्मं अहियासिऊण रोगे, अणेयलद्धी - सुसतिसंपन्नो । कालं काऊण तओ, सणकुमारं गओ सम्गं४ ॥ अह पुण्डरीगिणीए मेहरहो घगरहस्स सीसत्तं । काऊण कालधम्मं, सबट्ठे सुरवरो जाओ ॥ तत्तो चुओ समाणो, नागपुरे वीससेण महिलाए । गब्भम्मि सुओ जाओ, सन्ती जीवाण सन्तिकरो ॥ भोत्तूण भरहवासं, तित्थं उप्पाइऊण सिद्धिगओ । सोलसमो य निणाणं पञ्चमओ चक्कवट्टी५ ॥ कुन्थू अरो य चक्की, दोण्णि वि तित्थंकरा समुपपन्ना । हन्नूर्ण कम्ममलं, सिवमय लमणुत्तरं पत्ता६-७ ॥ धम्मस्स य सन्तिम्स य, सणकुमारो जिणन्तरे आसि । तिणि जिणा चकहरा, अन्तरमेयं तु नायब ॥ धणपुरे ए नराहिव !, नराहिंयो मुणिविचित्तगुत्तस्स । सीसो होऊण मओ, पत्तो च्चिय देवलोयं सो ॥ चविऊण विमाणाओ, सावत्थीसाभियस्स महिलाए । ताराएँ समुप्पन्नो, पुत्तो सो कत्तविरियस्स ॥ नामेण सो सुभूमो, जमदग्गिनुयं रणे परसुरामं । हन्तूण चक्कवट्टी, जाओ रयणाहिवो सुरो ॥ निम्भणाय पुहईं, काऊण य विरइवज्जिओ कालं । सत्तमपुढवि पत्तो, घणपावपसङ्गजोएणं ॥ चिन्तामणि त्ति नामं नराहिवो वीयसोगनयरीए । लहिऊण सुप्पभगुरुं पञ्चमकप्पे समुप्पन्नो ॥ चइऊणं नागपुरे, पउमरहनराहिवस्स महिलाए । जाओ य मऊराए, अह चकहरो महापउमो ॥
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शरीरवाला वह सिंहासन पर बैठा । देवोंने चक्रवर्तीको देखा । (१२८) तब देवोंने कहा कि तुम्हारा यह अत्यन्त सुन्दर रूप है । इसमें सिर्फ एक ही दोष है कि यह क्षणभंगुर स्वभाववाला है । (२२९) प्रथम दर्शनके समय तुम्हारी जो यौनके अनुरूप शोभा थी वह अतिशीघ्र गति से क्षणभरमें क्यों क्षोण हो गई ? ( १३०) देवोंका ऐसा कथन सुनकर और मनुष्यजन्मको अशाश्वत समझकर चक्रवर्तीने दीक्षा ली और घोर तपश्चर्या करने लगा । (१३१) अनेक लब्धियों और सुन्दर शक्तियों से सम्पन्न उसने रोगोंको सहन किया । तब मर करके वह सनत्कुमार स्वर्ग में गया । ( १३२)
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पुण्डरीकिणी में मेघरथने घनरथका शिष्यत्व अंगीकार किया मर कर वह सर्वार्थसिद्धमें उत्तमदेव हुआ । (१३३) वहाँ से च्युत होनेपर नागपुर से विश्वसेनकी पत्नी के गर्भसे जीवोंको शान्ति प्रदान करनेवाला शान्ति नामक पुत्र हुआ । (१३४) भरतक्षेत्रका उपभोग करके और तीर्थकी स्थापना करके वह मोक्षमें गया। वह जिनोंमें सोलहवाँ और चक्रवर्तियों में पाँचवाँ था । (१३५) कुन्थु और अर ये दोनों चक्रवर्ती और तीर्थंकर रूप से उत्पन्न हुए थे। इन्होंने कर्म मलका नाश करके अचल और अनुपम मोक्ष प्राप्त किया । (१३३) सनत्कुमार धर्मनाथ और शान्तिनाथ इन दो जिनेश्वरोंके वीचके समय में हुआ था। तीन जिन चक्रवर्ती थे। यह अन्तर जानना चाहिए । (१३७)
हे राजन् ! धन्यपुर में राजा विचित्रगुप्त नामक मुनिका शिष्य हुआ । मर करके उसने देवलोक पाया । (१३=) विमानसे च्युत होने पर श्रावस्तीके स्वामी कार्तवीर्यकी स्त्रो तारासे वह पुत्र के रूपमें उत्पन्न हुआ । (१३९) उसका नाम सुभूम था। जमदग्निके पुत्र परशुरामको रणमें मारकर वह शूर चक्रवर्ती रत्नोंका स्वामी हुआ । (१४०) पृथ्वीको ब्राह्मणोंसे रहित करके वैराग्हीन वह मरकर अत्यन्त पाप प्रसंगके कारण सातवें नरकमें गया । (१४१) वीतशोक नगरीमें चिन्तामणि नामका एक राजा था। सुप्रभ गुरुको पाकर वह पांचवें कल्पमें उत्पन्न हुआ । (१४२) वहाँ से च्युत होकर नागपुर में पद्मरथ राजाकी पत्नी मयूरासे महापद्म नामका चक्रवर्ती हुआ । (१४३) उसकी रूप और गुणसे युक्त आठ कन्याएँ
१. निभणं च पुहई - प्रत्यः ।
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