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१६४ पउमचरियं
[१६.४९दियहम्मि वियसियाई, निययं भमरउलछड्डियदलाई। मउलेन्ति कुवलयाई. दिणयरविरहम्मि दुहियाई ॥ ४९ ॥ अह ते हंसाईया, सउणा लीलाइउं सरवरम्मि । दटुं, संझासमय, गया य निययाइँ ठाणाई ॥ ५० ॥ तत्थेक्का चक्काई, दिट्ठा पवणंजएण कुबन्ती । अहियं समाउलमणा, अहिणवविरहग्गितवियङ्गी ॥ ५१ ।। उद्धाइ चलइ वेवइ, विहुणइ पक्खावलिं वियम्भन्ती । तडपायवे विलग्गइ, पुणरवि सलिलं समल्लियइ ।। ५२ ।। विहडेइ पउमसण्डं, दइययसकाएँ चञ्चुपहरेहिं । उप्पयइ गयणमग्गं, सहसा पडिसहयं सोउं ।। ५३ ।। गरुयपियविरहदुहियं, चक्किं दट्टण तम्गयमणेणं । पवणंजएण सरिया, महिन्दतणया चिरपमुक्का ॥ ५४ ।। भणिऊण समाढत्तो, हा! कटुं जा मए अकज्जेणं । मूढेण पावगुरुणा, चत्ता वरिसाणि बावीसं ॥ ५५ ॥ जह एसा चक्काई, गाढं पियविरहदुक्खिया जाया । तह सा मज्झ पिययमा, सुदीणवयणा गमइ कालं ॥ ५६ ॥ जइ नाम अकण्णसुह, भणियं सहियाएँ तीऍ पावाए । तो किंमए विमुक्का, पसयच्छी दोसपरिहीणा ? ॥ ५७ ।। परिचिन्तिऊण एवं, वाउकुमारेण पहसिओ भणिओ । दट ठूण चकवाई, सरिया मे अञ्जणा भज्जा ।। ५८ ॥ एन्तेण मए दिट्टा, पासायतलट्ठिया पलोयन्ती । ववगयसिरि-सोहग्गा, हिमेण पहया कमलिणि च ।। ५९ ॥ तं चिय करेहि सुपुरिस!, अज्ज उवायं अकालहीणम्मि । जेण चिरविरहदहिया, पेच्छामि अहञ्जणा बाला ॥ ६० ॥ परिमुणियकज्जनिहसो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो । मोत्तूण तत्थ गमणं, अन्नोवायं न पेच्छामि ॥ ६१ ॥ पवणंजएण तुरियं, सद्दावेऊण मोग्गरामच्चो । ठविओ य सेन्नरक्खो, भणिओ मेरुं अहं जामि ॥ ६२ ॥ चन्दणकुसुमविहत्था, दोण्णि वि गयणङ्गणेण वच्चन्ता । रयणीए तुरियचवला, संपत्ता अञ्जणाभवणं ॥ ६३ ॥
तो पहसिओ ठवेडं, घरस्स अग्गीवए पवणवेगं । अन्भिन्तरं पविट्ठो, दिट्ठो बालाएँ सहस त्ति ।। ६४ ।। दुःखित होकर सकुचा गये । (४९) हंस आदि जो पक्षी उस सरोवरमें क्रीड़ा करते थे वे भी संध्याकाल देखकर अपने-अपने स्थानों में चले गये । (५०) वहाँ पवनंजयने अत्यन्त व्याकुल मनबाली, ताजे विरहरूपी अग्निसे तपे हुए शरीरवाली तथा अनेक प्रकारकी चेष्टा करनेवाली एक चकवीको देखा । (५१) वह ऊँचे जाती थी, चलती थी, काँपती थी, जमुहाई खाती हुई पर फड़फड़ाती थी, तटवर्ती पेड़ पर बैठतो थी और फिर पानीमें डुबकी मारती थी। (५२) प्रियकी आशंकासे चंचुप्रहार करती हुई वह कमलसमूहमेंसे होकर चलती थी और प्रतिध्वनि सुनकर एकदम आकाशमार्गमें उड़ जाती ध्री । (५३) प्रियके विरहसे अत्यन्त दुःखित उस चकवीको देखकर उसमें लगे हुए मनवाले पवनंजयको चिरकालसे परित्यक्त अंजनासुन्दरी की याद आई । (५४) वह कहने लगा कि अफ़सोस है कि मूढ़, अकार्यकारी और पापसे भारो मैंने बाईस सालसे उसे छोड़ दिया है । (५५) जैसे यह चकवी अपने प्रियके विरहसे अत्यन्त दुःखी हो गई है वैसे ही मेरी वह अत्यन्त दीनवदना प्रियतमा समय व्यतीत करती होगी । (५६) यदि उसको दुष्ट सखीने कानों के लिए असुखकर कहा तो मैंने क्यों दोषरहित उस विशाल नेत्रोंवालीको छोड़ दिया । (५७) ऐसा सोचकर पवनकुमारने प्रहसितसे कहा कि चकवीको देखकर मुझे मेरी पत्नी अंजना याद आई है। (५८) आते हुए मैंने पालेसे पीड़ित पद्मिनीकी भाँति श्री एवं सौभाग्यसे रहित उसे महलमें खड़ी होकर अवलोकन करती हुई देखा था (५९) हे सत्पुरुष ! समय बिताये बिना ही तुम आज कोई ऐसा उपाय करो जिससे चिरकालोन विरहसे दुःखित अंजनाकुमारीको मैं देख पाऊँ । (६०) कार्यके महत्त्वको जानकर मित्र प्रहसितने पवनगतिसे कहा कि वहाँ जानेके अलावा दूसरा कोई उपाय मैं नहीं देखता । (६१) पवनंजयने मुदर नामक अमात्यको शीघ्र हो बुलाकर और सेनाधिपतिके पद पर स्थापित करके कहा कि मैं मेरुकी ओर जाता हूँ। (६२) चन्दन एवं पुष्प हाथमें धारण करके वे दोनों आकाशमार्गसे प्रयाण करते हुए जल्दी ही अंजनाके भवनके पास आ पहुँचे । (६३) बादमें पवनवेगको घरके आगेके हिस्से में रखकर प्रहसितने भीतर प्रवेश किया। अंजनासुन्दरीने उसे सहसा देखा । (६४) उसने पूछा कि तुम कौन हो? किसलिए यहाँ आये हो ? तब उसने प्रणाम करके कहा कि मैं
१. दुहियं पेच्छा म अक्षयं व लं-त्य.। २. गृहस्य मध्यप्रदेशे यत्राजनाऽऽस्ते।
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