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पउमचरियं
[१९. १३
पहाओ कयबलिकम्मो, आपुच्छेऊण गुरुयणं सवं । आरुहिय वरविमाणं, चलिओ लेङ्का सह बलेणं ॥ १३ ॥ जलवीइपचओवरि. रति गमिऊण उग्गए सूरे । पेच्छन्तो सलिलनिहि, पइसइ लङ्कापुरि हणुओ ॥ १४ ॥ साइणकयपरिहत्थो, सबालङ्कारभूसियसरीरो । निसियरजणेण दिट्ठो, हणुयन्तो सुरकुमारो व ॥ १५ ॥ एवं दसाणणसहं, हणुओ पविसरइ रयणविच्छुरिओ । सामन्तकयाडोवो, अणेयकुसुमच्चणविहाणो ॥ १६ ॥ मत्तगयलीलगामी, पणमइ लाहिवं पवणपुत्तो । तेण वि ससंझमेणं, अब्भुट्टेऊण उवगूढो ॥ १७ ॥ दिन्नासणे निवि, पुच्छइ हणुयं दसाणणो कुसलं । कुणइ य सम्माणवरं, अइगरुयं दाणविभवेणं ॥ १८ ॥ एवं समत्थसाहण-सहिओ लङ्काहिवो पुरवरीए । रणपरिहत्थुच्छाहो, विणिग्गओ वरुणपुरहुत्तो ॥ १० ॥ विज्जागे सायरवरं, मेत्तण य वरुणसन्तियं नयरं । संपत्तो चिय सहसा, सन्नाहकयङ्गरायवलो ॥ २० ॥ सोऊण रावणं सो, समागयं तत्थ सबबलसहिओ । सन्नद्ध-बद्ध-कवओ, विणिग्गओ अहिमुहो वरुणो ॥ २१ ॥ वरुणस्स सुयाण सयं, अभिट्ट रक्खसाण संगामे । सर-सत्ति-खग्ग-मोग्गर-आउहविच्याओहं ॥ २२ ॥ वरुणसुएहि रणमुहे, निद्दयपहरेहि रक्खसाणीयं । भग्गं दट ट्रण सयं, समुट्टिओ रावणो तुरियं ॥ २३ ॥ जुज्झन्तो दहवयणो, वरुणस्स सुपहि वेडिओ समरे । मेहेहि व दिवसयरो, पाउसकाले समोत्थरिओ ॥ २१ ॥ इन्दइ-विहीसणा वि य, सुहडा तह भाणुकण्णमाईया । चकं व समारूढा, वरुणेण भमाडिया सबे ॥ २५ ॥ रक्खसबलं विसणं, हणुमन्तो पेच्छिऊण परिकुविओ। वाणासणि मुयन्तो, समुट्टिओ निययवलसहिओ ॥ २६ ॥ खग्गेण मोग्गरेण य, चक्रेण य पवणनन्द्रणो सुहडे । आहणइ चडुलपसरन्तविक्कमो जह कयन्तो छ ॥ २७ ॥
जुझं काऊण चिरं, गिण्हइ वरुणस्स नन्दणे हणुओ । अह रावणो वि बन्धइ, वरुणं चिय नागपासेहिं ॥ २८ ॥ होकर सैन्यके साथ लंकाको ओर चल पड़ा । (१३) जलवीचि नामक पर्वतके ऊपर रात बिताकर सूर्य उगने पर समुद्रको देखते हुए हनुमानने लंकापुरीमें प्रवेश किया । (१४) सैन्यमें दक्षता प्राप्त और सब प्रकारके अलंकारोंसे भूषित शरीरवाला हनुमान राक्षसों द्वारा देवकुमारकी भाँति देखा गया । (१५) रनोंसे देदीप्यमान, सामन्तोंसे घिरे हुए और अनेक प्रकारके पुष्पोंसे जिसकी पूजनविधि की जा रही है ऐसे हनुमानने रावणको सभामें प्रवेश किया। (१६) मदोन्मत्त हाथीकी भाँति गमन करनेवाले पवनपुत्रने लंकेश रावणको प्रणाम किया। उसने भी जल्दीसे खड़े होकर उसका आलिंगन किया। (१७) दिये गये आसन पर बैठे हुए हनुमानसे रावणने कुशल पूछी और वैभवके प्रदान द्वारा उसका बड़ा भारी सम्मान किया। (१८)
इस प्रकार समस्त सैन्यके साथ युद्धके लिए परिपूर्ण उत्साहवाले रावणने नगरीमेंसे निकलकर वरुणपुरीकी ओर प्रयाण किया। (१९) कवचका ही जिसकी सेनाने अंगराग किया है ऐसा वह रावण विद्याके बलसे सागरका भेद करके सहसा वरुणके नगरके पास आ पहुँचा । (२०) रावणका वहाँ आगमन सुनकर तैयार और बद्ध कवचवाला वरुण सम्पूर्णसेनाके साथ रावणका सामना करनेके लिए निकला । (२१) शर, शक्ति, तलवार एवं मुद्गर जैसे शस्त्रोंके छोड़नेसे चोट पर चोट लगते हुए वरुणके सौ पुत्र संग्राममें राक्षसोंसे भिड़ गये । (२२) युद्ध में निर्दय प्रहार करनेवाले वरुणपुत्रोंने राक्षससैन्यको नष्ट कर दिया है यह देखकर रावण शीघ्र ही उठ खड़ा हुआ । (२३) वर्षाकालमें बादलों द्वारा टैंके गये सूर्यकी भाँति वरुणके पुत्रोंने युद्ध में लड़ते हुए रावणको घेर लिया। (२४) इन्द्रजित, विभीषण तथा भानुकर्ण आदि सब सुभटोको, मानो वे चक्र पर चढ़े हों इस तरह वरुणने घुमाया। (२५) राक्षससैन्यको विषण्ण देखकर अत्यन्त कुपित हनुमान वाणरूपी वन फेंकता हुआ अपनी सेनाके साथ उपस्थित हुआ। (२६) चारों ओर प्रसरित विक्रमवाला हनुमान तलवार, मुद्र तथा चक्रसे यमकी भाँति सुभटोंको मारने लगा । (२७) चिरकाल पर्यन्त युद्ध करनेके बाद हनुमानने वरुणके पुत्रोंको पकड़ लिया। रावणने भी नागपाशसे वरुणको बाँध लिया । (२८) पुत्रके साथ वरुणको लेकर कृतार्थ लंकाधिपने उत्तम पद्यानमें डेरा डाला
१. कयपरिकम्मो-मु.। २. लंक-प्रत्यः। ३. वरुणपुराभिमुखम् ।
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