________________
१८. पवणंजय-अंजणासुन्दरीसमागमविहाणं पवनञ्जयेन अञ्जनाया गवेषणाएवं ते मगहाहिव!, कहियं सिरिसेलजम्मसंबन्धं । एत्तो सुणाहि संपइ, पवर्णजयकारणं सर्व ॥ १ ॥ पवणंजएण एत्तो, गन्तुं लङ्काहिवं पणमिऊणं । लद्धाएसेणं चिय, वरुणेण समं कयं जुझं ॥ २ ॥ संगामम्मि पवत्ते, वरुणं उवउट्ठिऊण पवणगई । कारेइ संधिसमयं, जलकन्तो दूसणं मुयइ ॥ ३ ॥ लकाहिवेण एत्तो, सम्माणेऊण तत्थ पवणगई । वीसजिओ य वच्चइ, सपुरं गयणेण तुरन्तो ॥ ४ ॥ पविसरइ निययनयर, गुरूण काऊण सहरिसो विणयं । कन्तासमूसुयमणो, अल्लीणो अञ्जणाभवणं ॥ ५॥ तत्थ भवणे निविट्ठो, संभासेऊण परियणं सयलं । कन्तं अपेच्छमाणो, पुच्छइ पवणंजओ मित्तं ॥ ६ ॥ परिमुणियकारणेणं, सिर्ट मित्तेण तुज्झ सा महिला । नीया महिन्दनयरं, तत्थऽच्छइ पिइहरे बाला ॥ ७॥ एवं च कहियमेत्ते, महिन्दनयरं गओ पवणवेगो । दट्टण निययससुरं, रियइ तओ अञ्जणाभवणं ॥ ८ ॥ तत्थ वि य अपेच्छन्तो. कन्ताविरहग्गितवियसबङ्गो । भवणेकवरतरुणो, पुच्छइ कत्तो महं भज्जा ? ॥ ५ ॥ तीए वि तस्स सिटुं. सा महिला तुज्झ गम्भदोसेणं । अववायजणियदुक्खा, गुरूहि चत्ता गया रणं ॥ १० ॥ सुणिऊण वयणमेय, पवणगई दुक्खदूमियसरीरो । छिद्देण य निग्गन्तुं, भमइ य कन्ता गवेसन्तो ॥ ११ ॥ परिहिण्डिऊण वसुह, अलहन्तो अञ्जणाएँ पडिबत्ती । गच्छसु आइच्चपुरं, मित्तं पवणंजओ भणइ ॥ १२ ॥ एयं चिय संबन्धं, गुरूण सबं कहेहि गन्तूण । अहयं पुण पुहइयले, भमामि कन्ता गवेसन्तो ॥ १३ ॥ जइ त महिन्दतणयं, एत्थ न पेच्छामि परिभमन्तो हैं । तो निच्छएण मरणं, मित्त पइन्ना महं एसा ॥ १४ ॥
१८. पवनंजय तथा अंजनासुन्दरीका समागम श्रीगौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि, हे मगधनरेश ! मैंने इस प्रकार तुम्हें श्रीशैलके जन्मका वृत्तान्त कहा। अब यहाँसे पवनंजयके बारेमें जो कुछ कहता हूँ वह सब तुम सुनो । (१)
उधर लंकाधिप रावणके पास जाकर, प्रणाम करके तथा आज्ञा लेकर पवनंजयने वरुणके साथ युद्ध किया। (२) युद्ध होने पर वरुणको हराकर पवनगतिने संधि कराई। जलके स्वामी वरुणने खरदूषणको छोड़ दिया। (३) इस पर रावणने पवनगतिका लंकामें सम्मान करके उसे जानेकी अनुमति दी। वह गगनमार्गसे जल्दी जल्दी प्रयाण करता हुआ अपने नगरकी ओर चल पड़ा। (४) अपने नगरमें प्रवेश किया। आनन्दमें आये हुए उसने गुरुजनोंका विनय किया। बाद में पत्नीके लिए उत्सुक मनवाले उसने अंजनाके भवनमें प्रवेश किया । (५) उस भवनमें प्रविष्ट पवनंजयने सभी परिजनोंके साथ बातचीत की, किन्तु अपनी पत्नीको न देखकर उसने मित्रसे पूछा । (६) कारण जानकर मित्रने कहा कि तुम्हारी उस पत्नीको महेन्द्रनगर ले गये हैं। वहाँ अपने मायके में वह बाला है। (७) इस प्रकार कहने पर पवनवेग महेन्द्रनगरमें गया । और अपने श्वसुरके दर्शन करके वह अंजनाके भवनमें गया। (5) वहाँ पर भी पत्नीको न देखकर सारे शरीरमें विरहाग्निसे जलते हुए उसने उस भवनमें रहनेवाली एक सुन्दरीसे पूछा कि मेरी भार्या कहाँ है ? (९) उसने भी उसे कहा कि गर्भके दोषके कारण होनेवाली निन्दासे दुःखित गुरुजनोंने तुम्हारी स्त्रीका परित्याग कर दिया है, जिससे वह अरण्यमें चली गई है। (१०) यह बात सुनकर दुःखसे पीड़ित शरीरवाला पवनगति दरवाजेसे बाहर निकला और पत्नीको खोजता हुआ भटकने लगा। (११) पृथ्वीमें परिभ्रमण करने पर भी अंजनाकी खबर न लगनेसे पवनंजयने मित्रसे कहा कि तुम आदित्यपुर जाओ। (१२) वहाँ जाकर गुरुजनोंसे यह समग्र वृत्तान्त कह सुनाना। मैं तो पृथ्वीतलपर पत्नीको ढूँढ़ता फिरता हूँ। (१३) हे मित्र ! परिभ्रमण करता हुआ मैं यदि उस अंजनाको यहाँ नहीं देखूगा तो निश्चय ही
१. इयर्सि-गच्छति । २. तरुणि-प्रत्यः । ३-४. कंतं-प्रत्यः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org