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१६.४८]
१६. पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो पल्हायनरवईणं, ताहे वोसज्जिओ पवणवेगो । भणिओ य पत्थिवजयं, पुत्तय ! पावन्तओ होहि ॥ ३४ ॥ तातस्स सिरपणाम. काउं आपुच्छिऊण से जणणिं । आहरणभूसियङ्गो, विणिग्गओ सो सभवणाओ॥ ३५॥ सहसा पुरम्मि जाओ, उल्लोल्लो निग्गओ पवणवेगो । सोऊण अञ्जणा वि य, तं सदं निग्गया तुरियं ॥ ३६ ॥ अइपसरन्तसिणेहा, थम्भल्लीणा पई पलोयन्ती । वरसालिभञ्जिया इव, दिट्टा बाला जणवएणं ॥ ३७॥ पेच्छइ य तं कुमार, महिन्दतणया नरिन्दमम्गम्मि । पुलयन्ती न य तिप्पइ, कुवलयदलसरिसनयणेहिं ॥ ३८ ॥ पवणंजएण वि तओ, पासायतलट्ठिया . पलोयन्ती । दूरं उबियणिज्जा, उक्का इव अञ्जणा दिट्ठा ॥ ३९ ॥ तं पेच्छिऊण रुट्ठो, पवणगई रोसपसरियसरीरो । भणइ य अहो! अलज्जा, जा मज्झ उवट्टिया पुरओ ॥ ४० ॥ रइऊण अञ्जलिउडं, चलणपणामं च तस्स काऊण । भणइ उवालम्भन्ती, दूरपवासो तुमं सामी! ॥ ४१ ॥ वचन्तेण परियणो, सबो संभासिओ तुमे सामि! । न य अन्नमणगएण वि, आलत्ता हं अकयपुण्णा ॥ ४२ ॥ जीयं मरणं पि तुमे, आयत्तं मझ. संदेहो । जइ वि हु जासि पवासं, तह वि य अम्हे सरेज्जासु ॥ ४३ ॥ एवं पलवन्तोए, पवणगई
। निग्गन्तूण पुराओ, उवढिओ माणससरम्मि ॥ ४४ ॥ विज्जाबलेण रइओ, तत्थ निवेसो ऽऽसणाईओ। ताव च्चिय अत्थगिरिं, कमेण सूरो समल्लीणो ॥ ४५॥ सन्ध्यावर्णनम् , पवनञ्जयेन अञ्जनायाः स्मरणम्-चअह सो मंझासमए, भवण-वक्खन्तरेण पवणगई । पेच्छइ सरं सुरम्म, निम्मलवरसलिलसंपुण्णं ।। ४६ ॥ मच्छेसु कच्छभेसु य, सारस-हंसेसु पयलियतरङ्गं । गुमुगुमुगुमन्तभमरं, सहस्सपत्तेसु संछन्नं ॥ ४७ ॥
अइदारुणप्पयावो, लोए काऊण दीहरज्जं सो । अत्थाओ दिवसयरो, अवसाणे नरवई चेव ॥ ४८ ॥ जानेकी अनुज्ञा दी और कहा कि, हे पुत्र ! तुम राजाओं पर विजय प्राप्त करनेवाले हो ! (३४) पिताको सिरसे प्रणाम करके तथा माताकी अनुमति लेकर आभूषणोंसे भूषित शरीरवाला वह अपने महल मेंसे बाहर निकला । (३५)
नगरमें एकदम कोलाहल मच गया कि पवनवेग जा रहा है। ऐसा शब्द सुनकर अंजना भी तत्काल बाहर आई ।(३६) अत्यन्त स्नेह फैलाती तथा स्तंभका सहारा लेकर पतिको निहारती उस स्त्री अंजनासुन्दरीको लोगोंने सुन्दर शालभंजिका पुतली जैसी देखा । (३७) पुलकित होकर कमलदलके समान नेत्रों द्वारा राजमार्गमें उस कुमारको देखती हुई वह महेन्द्रतनया अंजना सुन्दरी तृप्त नहीं होती थी। (३८) उस समय पवनंजयने भी प्रासादतल पर खड़ी होकर देखनेवाली उस अंजनाको उद्वेगप्रद उल्काकी भाँति देखा । (३९) उसे देखकर जिसके शरीरमें रोष फैल गया है ऐसे पवनगतिने रुष्ट होकर कहा कि यह कितनी निर्लज्जता है कि तुम मेरे सामने उपस्थित हुई हो। (४०) इसपर हाथ जोड़कर और उसके चरणों में प्रणाम करके उपालम्भ देती हुई वह कहने लगी कि, हे स्वामी! आप प्रवास पर जा रहे हैं। हे नाथ ! जाते समय आपने सब परिजनोंके साथ सम्भाषण किया। अन्यमनस्क आपने पापी मेरे साथ तो बात भी नहीं की। (४१-४२) इसमें सन्देह नहीं है कि मेरा जीवन और मरण भी आपके अधीन है। यद्यपि आप प्रवासमें जा रहे हैं, फिर भी मैं तो याद करती रहूँगी। (४३) इस प्रकार जब वह प्रलाप कर रही थी तब पवनगति मत्त हाथीके ऊपर सवार होकर नगरमेंसे बाहर निकला और मानससरोवरके पास आ पहुँचा । (४४) विद्याके बलसे वहाँ घर तथा शैय्या आदिसे युक्त आवासस्थानकी रचना की। उस समय सूर्य भी क्रमशः परिभ्रमण करता हुआ अस्ताचल पर आ गया। (४५)
संध्याके समय भवनके गवाक्षमें स्थित होकर पवनगतिने निर्मल एवं उत्तम जलसे परिपूर्ण उस सुन्दर सरोवरको देखा । (४६) मत्स्य, कच्छप, सारस एवं हंसोंसे उसकी तरंगें चंचल हो रही थीं। सहस्रदल कमलोंमें गुंजारव करनेवाले भ्रमरोंसे वह छाया हुआ था। (४७) अतिदारुण प्रतापवाले राजाकी भाँति दीर्घकाल पर्यन्त राज्य करके वह सूर्य अवसानके समय अस्त हो गया। (४८) दिवसमें विकसित और भ्रमरकुलने जिनके दलोंका त्याग किया है ऐसे कमल सर्यके विरहसे
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