________________
पउमचरियं
[१४. १३४अणथन्ते दिवसयरे, जो चयइ चउबिहं पि आहारं । सो जगजगेन्तसोहे, वसइ विमाणे चिरं कालं ॥ १३४ ॥ तत्तो चुओ समाणो, उप्पन्नो एत्थ माणुसे लोए । बहुनयर-खेड-कब्बड-रह-गयवरसामिओ होइ ॥ १३५ ॥ पुणरवि निणवरविहिए, धम्मे काऊण दढयरं चित्तं । आराहियतव-नियमो, कमेण सिवसासयं लहइ ॥ १३६ ॥ जे पुण रयणीसु नरा, भुञ्जन्ति असंजया वयविहूणा । ते नरय-तिरियवासे, हिण्डन्ति अणन्तयं कालं ॥ १३७॥ अणुहविऊण य दुक्खं.नइ कह विलहन्ति माणुसं जम्म । तत्थ विहोन्ति अणाहा, जे निसिभत्तं न वज्जन्ति ॥ १३८ ॥ महिला य जा न रत्ति, भुञ्जइ आहार-खाण-पाणविहिं । जिणधम्मभावियमई, सा वि य देवत्तणं लहइ ॥ १३९ ॥ तत्थ विमाणम्मि चिरं, विसयसुहं भुञ्जिउं चुयसमाणी । आयाइ माणुसत्ते, उत्तममहिला सुरूवा य ॥ १४० ॥ तीए हवइ पकाम, कञ्चण-मणि-रयण रुप्पय-पवालं । धण-धन्नं च बहुविहं, जीएँ न भुत्तं वियालम्मि ॥ १४१ ॥ सेज्जाहि पुहनिसण्णा, विज्जिज्जइ चामरेहि विलयाहिं । आभरणभूसियङ्गी, जा निसिभत्तं विवज्जेइ ।। १४२ ।। चक्कहर-वासुदेवाण होन्ति महिलाउ ललियरूबाओ । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, जाओ विवजन्ति निसिभत्तं ॥ १४३ ॥ नाओ पुण महिलाओ, रत्तिं जेमन्ति धम्मरहियाओ । ताओ वि हु दुक्खाइँ, अणुहोन्ति बहुप्पयाराई ॥ १.४४ ॥ होणकुलसंभवाओ, धण-धन्न-सुवण्ण-रूवरहियाओ। जायन्ति महिलियाओ, जाओ भञ्जन्ति निसिभत्तं ॥ १४५ ॥ दारिद-दूहवाओ, निच्चं कर-चरणफुट्टकेसीओ । होन्ति इह महिलियाओ, जाओ भुञ्जन्ति निसिभत्तं ॥ १४६ ॥ जइ वि हु किंचि निओगं, करेन्ति अन्नाणधम्मसद्धाए। तह वियतं अप्पफलं, होइ य निसिभोयणरयाणं ॥ १४७ ॥ तम्हा वज्जेह इम, निसिभत्तं जीवघायणं नं च । अलियं अदत्तदाणं, परदारं तह य महुमंसं ॥ १४८ ॥
जिनेश्वरकी भक्तिसे युक्त बुद्धिवाला जो पुरुष दिनमें भोजन करता है वह उत्तम विमानका वासी बनकर चिरकाल पर्यन्त देवकन्याओंके साथ रमण करता है। (१३३) सूर्य के अस्त न होने पर भी जो चतुर्विध आहारका त्याग करता है। वह देदीप्यमान शोभावाले विमानमें चिरकाल तक निवास करता है । (१३४) वहाँसे च्युत होनेपर इस मनुष्यलोकमें उत्पन्न होकर वह बहुतसे नगर, गाँव एवं छोटे-छोटे नगरोंका तथा रथ एवं उत्तम हाथियोंका स्वामी बनता है। (१३५) जिनवरके द्वारा कहे गये धर्ममें पुनः चित्त अत्यन्त दृढ़ करके जो तप एवं नियमकी आराधना करते हैं वे क्रमशः शाश्वत शिवपद प्राप्त करते हैं । (१३६) जो असंयमो और प्रतहीन मनुष्य रातमें स्वाते हैं वे नरक एवं तिथंचगतिमें अत्यन्त कालतक परिभ्रमण करते हैं। (१३७) दुःखका अनुभव करके किसी तरह यदि मनुष्य-जन्म प्राप्त करने पर भी जो रात्रिभोजनका त्याग नहीं करते वे अनाथ होते हैं। (१३८) जिनधर्ममें दृढ़ बुद्धिवाली जो स्त्री रातमें भोजन नहीं करती और अशन एवं खानपानका नियम करती है वह भी देवत्व प्राप्त करती है। (१३६) वहाँ विमानमें चिरकाल विषयसुखका भोग करके च्युत होनेपर मनुष्यभवमें आती है और उत्तम एवं रूपवती स्त्री होती है। (१४०) जो सायंकालमें भोजन नहीं करती उसे बहुत ही सोना, मणि, रत्न, चाँदी, प्रवाल तथा बहुविध धन-धान्य मिलते हैं। (१४१) जो रात्रिभोजनका त्याग करती है वह शैय्यामें सुखपूर्वक आराम करती है, स्त्रियाँ उसे चामर ढोलती हैं तथा उसका शरीर आभूषणोंसे अलंकृत होता है। (१४२) जो रात्रिभोजनका त्याग करती हैं वे चक्रवर्ती एवं वासुदेवोंकी सुन्दर रूपवाली महिलाएँ होती हैं तथा विषयसुखका उपभोग करती हैं। (१४३) जो धर्मरहित स्त्रियाँ रातमें खाती हैं वे निश्चयसे अनेक प्रकारके दुःखोंका अनुभव करती हैं। (१५४) जो स्त्रियाँ यहाँ पर रातमें भोजन करती हैं वे हीन कुलमें उत्पन्न होती हैं तथा धन, धान्य, सुवर्ण एवं चाँदीसे रहित होती हैं। (१४५) जो त्रियाँ यहाँ पर रात्रिभोजन करती हैं वे सदा दरिद्र और कमनसीब होती हैं तथा उनके हाथ और पैरमें बाल फूट निकलते हैं । (१४६) रात्रिभोजनमें निरत यदि कोई अज्ञान एवं धर्मश्रद्धावश नियम करता भी है तो भी वह अल्प फल देनेवाला होता है। (१४७) इसलिए इस रात्रिभोजनका तथा जीवघात, असत्य, चोरी, परदारा तथा मधु-मांसका परित्याग करो। (१४८) अन्य धर्मका त्याग करो तथा जिनशासनमें सर्वदा प्रयत्नशील रहो। तभी सब संगोंसे मुक्त
१. रूप्यरहिताः। २. दुर्भगाः ।
। (१४१) जो
जाती हैं । (१४३) जो करती हैं वे चक्रवर्ती मर ढोलती हैं तथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org