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१३. २९]
१३. इन्दनिव्वाणगमगाहियारो वेरियनिहेण मज्झं, जाओ लङ्काहिवो परमबन्धू । निस्सारसुहासत्तो, जेणं पडिबोहिओ इहई ॥ १६ ॥ इन्दिय-मणाभिरामं, सब सुहसंगर्म पयहिऊण । गिण्हामि पावमहणी, पबज्जा जिणवरमयम्मि ॥ १७ ॥ एयम्मि देसयाले. साहू निवाणसंगमो नाम । तं चेव जिणाययणं, अवइण्णो गयणमग्गाओ ॥ १८॥ दट्टण मुणिवरिन्दं, सक्को अब्भुट्टिओ सपरितोसो । ओणमियउत्तमङ्गो, वन्दइ परमेण भावेण ॥ १९॥ साहू वि जहायारं, काऊण जिणिन्दचन्दपडिमाणं । दिन्नासणोवविट्ठो, तवतेयसिरीऍ दिप्पन्तो ॥ २० ॥ 'इन्द्रस्य पूर्वभवचरितम्पुणरवि नमिऊण मुणी, पुच्छइ सक्को परेण विणएणं । सामिय! कहेहि मज्झं, पुवभवं जं जहावत्तं ॥ २१ ॥ अह साहिउं पवत्तो, साहू तं पुबजम्मसंबन्धं । कह वि भमन्तेण तुमे, लद्धा विहु माणुसी जाई ॥ २२ ॥ नयरे सिहिपुरिनामे, दालिद्दकुलम्मि तत्थ उप्पन्ना । दुहिया अलक्खणगुणा, वाहीसयपीडियसरीरा ॥ २३ ॥ माया पिया य तीए, कालगया दो वि कम्मजोएणं । कहकह वि नीविया सा, लोगुच्छितॄण भत्तेणं ॥ २४ ॥ फुडियकर-पायजुयला, लुक्खसरीरा कुवत्थपरिहाणा । परिभमइ दुक्खियमणा, मेसिज्जन्ती जणवएणं ॥ २५॥ कम्मपरिनिजराए, कालं काऊण तत्थ उववन्ना । किंपुरिसस्स महिलिया, नामेणं खीरधार ति ॥ २६ ॥ तत्तो चुया समाणी, रयणपुरे धारिणीऍ गब्भम्मि । गोमुहकुडम्बियसुओ, सहस्सभाओ समुप्पन्नो ॥ २७ ॥ सम्मत्तं पडिवन्नो, सहस्सभाओ अणुवयसमग्गो । कालं काऊण तओ, सुक्कविमाणे समुप्पन्नो ॥ २८॥ चविऊण विमाणाओ, पुबिल्ले रयणसंचए नयरे । गुणवल्लीए पुत्तो, जाओ चिय मणिरए नयरे ॥ २९ ॥
तिनकेके समान सिद्ध हुए। (१५) शत्रुतुल्य होनेपर भी रावण, जिसने यहाँ इन निःसार सुखोंमें आसक्त मुझे जगाया है, मेरा परमबन्धु सिद्ध हुआ है। (१६) इन्द्रिय एवं मनको सुन्दर प्रतीत होनेवाले सारे सुख-साधनोंको छोड़कर पापका नाश करनेवाली जिनवरके धर्ममें जो प्रव्रज्या है वह मैं अंगीकार करूँ। (१७)
___उसी समय निर्वाणसंगम नामके एक साधु गगनमार्गसे उस जिनभवनमें उतरे। (१८) उस मुनिवरको देखकर आनन्दसे युक्त वह शक खड़ा हुआ और मस्तक झुकाकर उत्कृष्ट भावके साथ 'वन्दन किया। (१९) तपके तेजकी कान्तिसे देदीप्यमान वह मुनि जिनेश्वरदेवकी प्रतिमाओंका अपने आचारके अनुरूप (पूजन) करके दिये हुए आसनपर बैठे । (२०) मुनिको पुनः नमस्कार करके शक्रने अत्यन्त विनयके साथ पूछा कि, हे स्वामी! मेरा जो और जैसा पूर्वभव था उसके बारेमें आप कहें । (२१) इसपर वह साधु उसके पूर्वजन्मके सम्बन्धमें कहने लगेइन्द्र के पूर्वभवोंका वृत्तान्त
परिभ्रमण करते हुए तुने किसी प्रकार मानवजन्म प्राप्त किया। (२२) शिखिपुर नामक नगरमें एक दरिद्र कुलमें लक्षण एवं गुणसे रहित तथा सैकड़ों रोगोंसे पीड़ित एक लड़की उत्पन्न हुई थी। (२३) दुर्भाग्यवश उसके माता-पिता दोनों मर गये। लोगोंका जूठा अन्न खाकर वह किसी तरह जोती रही । (२४) फटे हुए हाथ-पैरोंवाली, रूक्ष शरीर तथा गन्दे व फटे-पुराने वस्त्र पहनी हुई और लोगोंसे डराई-धमकाई जाती वह मनमें दुःखित होकर इधर-उधर भटकती रहती थी। (२५) कर्मकी निर्जरावश मरनेके पश्चात् वह किंपुरुषको स्त्री क्षीरधाराके नामसे वहाँ उत्पन्न हुई । (२६) वहाँसे च्युत होनेपर रत्नपुरमें धारिणीके कृषक गोमुखके पुत्र सहस्रभानुके रूपमें उत्पन्न हुई। (२७) सम्यक्त्वधारी सहस्रभानुने अणुव्रत अंगीकार किये। वहाँसे मरकर वह शुक्र नामक विमानमें उत्पन्न हुआ। (२८) विमानसे च्युत होकर पूर्वके रत्नसंचय नगरमें मणिरत्नकी पत्नी गुणवल्लीके पुत्र रूपसे उत्पन्न हुआ । (२९) उस नन्दिवर्द्धनने राज्य करनेके पश्चात् जिनवरके
१. महणिं पव्वज्ज-प्रत्य०।
२. मुर्णि-प्रत्य।
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