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पउमचरियं
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अह नन्दिवद्धणो सो, रज्जं काऊण निणवरेण समं । पबइओ करिय तवं गेविज्जं उत्तमं पत्तो ॥ अहमिन्दपवरसोक्खं, भोत्तूण चुओ इहं भरहवासे । मणसुन्दरीऍ नाओ, सहसारसुओ तुमं इन्दो ॥ इन्दत्तं पडिवन्नो, मणाभिलासेण गब्भसमयम्मि । इह चक्कवालनयरे, जाओ विज्जाहराहिवई ॥ किं परितप्पसि दीहं, जह संगामे विणिज्जिओ अहयं ? । एयनिमित्तेण तुमं, कम्मकलङ्काउ मुचिहिसि ॥ किं न सरसि जं पुबं, कीरुन्तेण वि य दुण्णएण कयं । तं सबं फुड़वियडं, कहेमि निसुणेहि एगमणो ॥ नयरे अरिंजयपुरे, जलणसिहो नाम खेय राहिवई । महिला से वेगवई, दुहिया वि य होइ आहल्ला || ती सयंवरट्टे, मिलिया विज्जाहरा बहुवियप्पा । बल- रिद्धिसमुदएणं, तुमं पि पत्तो तहिं चेव चन्दावत्तरुत्तम - सामी आणन्दमालिणो नामं । गहिओ सयंवराए, परभवकम् माणुभावेणं ॥ परिणेऊण नरिन्दो, तं कनं रूव-जोबणापुण्णं । रइसागरोवगाढो, भुञ्जइ भोगे सुरवरो व ॥ तत्तो पभूइ तुहयं ईसावसरोसपसरियसरीरो । न य छड्डसि अणुबन्धं, तस्सुवरिं नन्दिमालिस्स ॥ अह अन्ना कयाई, संजमकम्मोदएण पडिबुद्धो । निक्खमइ नन्दिमाली, चइऊण परिग्गहा ऽऽरम्भं ॥ विहरन्तो संपत्तो, नदीऍ हंसावलीऍ तीरम्मि । समणसहिओ महप्पा, दिट्टो य तुमे भ्रमन्तेण ॥ ओलक्खिओ य साहू, झाणत्यो पबए रहावत्ते । सरियं ते नं वत्तं, आहल्लाकारणं सबं ॥ रुट्टेण तुमे बद्धो, समणो सबेसु चेव असु । तह वि न कम्पइ समणो, मेरू विव वायगुञ्जाहिं ॥ समणस्स निययभाया, साहू कल्लाणगुणधरो नामं । दट्टण य उवसग्गं, रुट्ठो पडिमं समाणे ॥ कोवाणलेण सिग्धं, डहिऊण निरूविओ समाणेणं । सबसिरीऍ महरिसी उवसमिओ तुज्झ महिलाए ॥
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पास दीक्षा ली और तप करके उत्तम ग्रैवेयक विमानमें उत्पन्न हुआ । (३०) अहमिन्द्र के समान उत्तम सुखका उपभोग करके वहाँ से च्युत होनेपर इसी भरत क्षेत्र में मनःसुन्दरीसे उत्पन्न तुम सहस्रार के पुत्र इन्द्र हुए हो । ( ३१) गर्भसमय में तुमने जो मनमें अभिलाषा की थी उससे तुमने इन्द्रत्व प्राप्त किया है। इस चक्रवाल नगरमें तुम विद्याधरोंके अधिपति हुए हो । (३२) लड़ाई में मैं हराया गया, ऐसा दीर्घ कालसे अनुताप तुम क्यों करते हो ? इस निमित्तसे तुम कर्मरूपी कलंक से मुक्त हो जाभोगे । (३३) खेलखेलमें तुमने पूर्वकालमें जो दुर्नीति की थी वह क्या तुम्हें याद नहीं आ रही ? वह सब मैं स्फुटरूप से कहता हूँ । तुम बराबर ध्यान देकर सुनो । (३४)
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अरिंजय नामक नगर में ज्वलनसिंह नामका एक खेचराधिपति था । उसकी स्त्री वेगवती थी तथा अहल्या नामकी एक पुत्री भी थी। (३५) उसके स्वयंवर में बल एवं ऋद्धिसे सम्पन्न अनेक विद्याधर इकट्ठे हुए थे। तुम भी वहाँपर आये थे । (३६) पूर्वजन्मके कर्मके फलरूप उस स्वयंवरा कन्या अहल्याने चन्द्रावर्त नामक उत्तम नगरके आनन्दमालिवर नामक स्वामीको अंगीकार किया। (३७) रूप एवं यौवनसे पूर्ण उस कन्या के साथ शादी करके प्रेमके सागर में लीन वह राजा उत्तम देवकी भाँति भोगोंका उपभोग करने लगा । (३८) तबसे लेकर ईष्यावश जिसके समग्र शरीर में रोष व्याप्त हो गया है ऐसे तुमने उस नन्दिमालीके ऊपर वैरभाव नहीं छोड़ा। (३९) एक बार संयमजनक कर्मके उदयसे नन्दिमालीको बोध हुआ और परिग्रह एवं आरम्भका त्याग करके उसने दीक्षा ले ली । (४० ) श्रमणोंके साथ विहार करता हुआ वह महात्मा हंसावली नदीके तौरपर आ पहुँचा। घूमते हुए तुमने उसे देखा । (४१) रथावर्त पर्वतके ऊपर ध्यानस्थ उस मुनिको तुमने पहचान लिया । अहल्या के कारण जो कुछ हुआ था वह सब तुम्हें याद हो आया । (४२) क्रोधमें आकर तुमने सभी अंगों से उस साधुको बाँध लिया, फिर भी गुंजारव करते हुए वायुसे जिस तरह मेरुपर्वत कम्पित नहीं होता उसी तरह वह कंपित न हुआ । ( ४३ ) श्रमणका अपना भाई और कल्याणगुगधर नामका साधु इस उपसर्गको देखकर क्रुद्ध हुआ । उसने प्रतिमायोग ( ध्यान ) पूर्ण किया । (४४) फौरन ही कोपरूपी अग्निसे जलाकर श्रमणने देखा । तुम्हारी पत्नी सर्वश्रीने उस महर्षिको शान्त किया । (४५) सम्यक्त्वयुक्त बुद्धिवाला और दयालु वह श्रमण उस स्त्रीको देखकर तत्काल शान्त हो
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