________________
१४४
पउमचरियं
[१४. ३५पञ्चाणुबयजुत्ता, केएल्थ अकामनिज्जराए य । एवंविहा मणुस्सा, मरिऊण लहन्ति देवत्तं ॥ ३५ ॥ केएत्थ भवणवासी, वन्तर-जोइसिय-कप्पवासी य । जोगविसेसेण पुणो, हवन्ति अहमुत्तमा देवा ॥ ३६ ॥ एवं चउप्पयारे, संसारे संसरन्ति कम्मवसा । जीवा मोहपरिणया, तं सिवसोक्खं अपावेन्ता ॥ ३७ ॥
सुपात्रकुपात्रं दानं, तत्प्रकाराः, फलं च:दाणेण वि लभइ नरो, सुमाणुसत्तं तहेव देवत्तं । जं देइ संजयाणं, चारित्तविसुद्धसीलाणं ॥ ३८ ॥ जे नाण-संजमरया, अणन्नदिट्टी जिइन्दिया धीरा । ते नाम होन्ति पत्तं, समणा सवृत्तमा लोए ॥ ३९ ॥ सुह-दुक्खेसु य समया, जेसि माणे तहेव अवमाणे । लाभा-ऽलाभे य समा, ते पर साहवो भणिया ॥ ४०॥ भावेण य जं दिन्नं, फासुयदाणोसहं मुणिवराणं । तं इन्दियाभिराम, विउलं पुण्गप्फलं होई ॥ ४१ ॥ मिच्छदिट्ठीण पुणो, जं दिज्जइ राग-दोसमूढाणं । आरम्भपरिणयाणं, तं चिय अफलं हवइ दाणं ॥ ४२ ।। कूएक्करसजलेणं, अहिसित्ता पायवा बहुवियप्पा । तितं च महुर-कडुया, हवन्ति निययाणुभावेणं ॥ ४३ ॥ एवमिह भत्तमेयं, सुसीलवन्ताण सीलरहियाणं । दिन्नं अन्नम्मि भवे, सुहमसुफलावहं होइ ॥४४॥ अप्पसरिसाण दाणं, जं दिज्जइ कामभोगतिसियाणं । तं न हु फलं पयच्छइ, धणियं पि हु उज्जमन्ताणं ॥ ४५ ॥ हा! कट्ट चिय लोओ, कयं वेयारिओ कुलिङ्गीहि । कुम्गन्थकत्थएहिं, उम्मग्गपलोट्टजीवहिं ? ॥ ४६ ॥ उवइट्ट चिय मंस, जागं काऊण भुञ्जह न दोसो। इन्दियवसाणुगेहिं, परलोगनियत्तचित्तेहिं ।। ४७ ।। काऊण धम्मबुद्धी, जे मंसं देन्ति जे य खायन्ति । उभओ वि जन्ति नरयं, तिबमहावेयणं घोरं ॥४८॥ जइ वि हु तवं महन्तं, कुणइ य तित्थाभिसेवणं सयलं । मंसं च जो न भुञ्जइ, तं तेण समं न य भवेज्जा ॥ ४९ ॥
कोई-कोई यहाँ अकामनिर्जरा करते हैं। इस प्रकारके मनुष्य मर करके देवत्व प्राप्त करते हैं। (३३) कई इस देवगतिमें भवनवासी होते हैं तो कई व्यंतर ज्योतिष्क तथा कल्पवासी देव होते हैं और अपनी मन-वचन-कायाकी प्रवृत्ति रूप योग विशेषके अनुसार अधम अथवा उत्तम देव बनते हैं। (३६) इस प्रकार चतुर्विध संसारमें मोहमें परिणत जीव परिभ्रमण करते हैं, और उस शिवसुखको (मोक्षको) प्राप्त नहीं करते । (३७)
दानसे मनुष्य अच्छा मानवभव प्राप्त करता है तथा जो चारित्र एवं विशुद्ध शीलवाले संयमीको दान देता है वह देवगति प्राप्त करता है। (३८) जो ज्ञान एवं संयममें रत हैं और जो सत्यदृष्टि, जितेन्द्रिय तथा धीर होते हैं वे ही सर्वोत्तम श्रमण दानके पात्र हैं। (३९) सुख दुःखमें जो समभाव रखते हैं, जो मान एवं अपमानमें तथा लाभ एवं हानिमें सम रहते हैं, वे ही साधु दानके पात्र कहे गये हैं। (४०) भावपूर्वक जो प्रासुक दान तथा औषध मुनिवरोंको दिया जाता है वह इन्द्रियोंके लिए सुन्दर तथा विपुल पुण्यरूपी फलमें कारणभूत होता है। (४१) किन्तु राग-द्वषसे मूढ़ तथा हिंसादि प्रारम्भमें लगे हुए मिथ्यादृष्टियोंको जो दान दिया जाता है वह निष्फल जाता है। (४२) जिस प्रकार कुएँके एक ही स्वादवाले पानीसे सींचे गये अनेक प्रकारके वृक्ष अपने अपने स्वभावके अनुसार तीखे, मीठे अथवा कडुए होते हैं, इसी प्रकार सुन्दर शीलवालोंको तथा शीलरहित जनोंको दिया गया भोजन दूसरे भवमें शुभ अथवा अशुभ फलदायी होता है। (४३-४४) अपने ही जैसे कामभोगोंमें तृषित लोगोंको जो दान दिया जाता है वह प्रशंसनीय होने पर भी उसमें उद्यम करनेवालोंको फल नहीं देता। (४५) अफसोस है कि कुशास्त्रोंका कथन करनेवाले तथा उन्मार्ग पर फेंके गये मिथ्यात्वी जीवोंने किस तरह लोगोंको ठगा है ! (४६) इन्द्रियोंके वशवर्ती तथा परलोकसे जिन्होंने मन हटा लिया है ऐसे लोगोंने उपदेश दिया है कि यज्ञ करके मांस खाओ तो इसमें दोष नहीं है । (४७) धर्मबुद्धिसे जो मांस देते हैं और जो खाते हैं वे दोनों घोर तथा अत्यन्त तीव्र वेदनासे युक्त नरकमें जाते हैं। (४८) यदि कोई बड़ा भारी तप करता है और समग्र तीर्थोकी सेवा करता है तो वह, जो मांस नहीं खाता उसकी बराबरी नहीं कर सकता। (४९) जोगोदान, कन्यादान, भूमिदान तथा सुवर्णदान करते हैं वे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org