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पउमचरियं
आकम्पियमहिवेढं, विहडियदढसन्धिबन्धणामूलं । अह पवयं सिरोवरि, भुयासु दूरं समुद्धरइ ॥ ६९ ॥ लम्बन्तदीहविसहर-भीउद्यविविहसावय-विहङ्गं । तडपडणखुभियनिज्झर-चलन्तघणसिहरसंघायं ॥ ७० ॥ खरपवणरेणुपसरिय-गयणयलोच्छइयदसदिसायकं । नायं तम-ऽन्धयारं, तहियं अट्ठावउद्धरणे ॥ ७१ ॥ उबेल्ला सलिलनिही, विवरीयं चिय वहन्ति सरियाओ। निग्धायपडन्तरवं, उक्का-ऽसणिगम्भिणं भुवणं ॥७२॥ विजाहरा वि भीया, असि-खेडय-कप्प-तोमरविहत्थं । किं किं ? ति उल्लवन्ता, उप्पइया नहयलं तुरिया ।। ७३ ॥ परमावहीऍ भगवं, वाली नाऊण गिरिवरुद्धरणं । अणुकम्पं पडिवन्नो, भरहकयाणं जिणहराणं ॥ ७४ ।। एयाण रक्खणटुं, करेमि न य जीवियबयनिमित्तं । मोत्तण राग-दोस, पवयणवच्छल्लभावेण ॥ ७५ ।। एव मुणिऊण तेणं, चलण?ण पीलियं सिहरं । जह दहमुहो निविट्ठो, गुरुभरभारोणयसरीरो ॥ ७६ ॥ विहडन्तमउडमोत्तिय-नमियसिरो गाढसिढिलसबङ्गो । पगलन्ततक्खणुप्पन्नसेयसंघायजलनिवहो ॥ ७७ ॥ ववगयजीयासेणं, रओ कओ जेण तत्थ अइघोरो । तेणं चिय जियलोए, विक्खाओ रावणो नामं ॥ ७८ ॥ सोऊण मुहरवं तं, मूढा सन्नज्झिऊण रणसूरा । किं किं ? ति उल्लवन्ता, भमन्ति पासेसु चलवेगा ॥ ७९ ॥ मुणितवगुणेण सहसा, दुन्दुहिसदो नहे पवित्थरिओ । पडिया य कुसुमवुट्टी, सुरमुक्का गयणमग्गाओ ॥ ८० ॥ नाहे अणायरेणं, सिढिलो अङ्गट्टओ कओ सिग्घं । मोत्तूण पबयवरं, विणिग्गओ दहमुहो ताहे ॥ ८१ ॥
सिग्घं गओ पणाम, दसाणणो मुणिवरं खमावेउं । थोऊण समाढत्तो, तव-नियमबलं पसंसन्तो ॥ ८२ ॥ हिलाकर, मूलमेंसे ही उसके मजबूत जोड़ोंको विच्छिन्न करके तथा सिर पर उसे धारणा करके भुजाओं द्वारा वह उसे दूर तक उठा ले गया। (६९) उस पर्वत पर बड़े-बड़े साँप लटक रहे थे, अनेक प्रकारके पशु एवं पक्षी भयवश इधर-उधर भाग रहे थे, किनारोंके गिरनेसे झरने क्षुब्ध हो उठे थे और शिखरोंके समूह बादलोंकी तरह चल-से रहे थे । (७०) उस समय अष्टापदके उठानेके कारण तेज़ पवनमें मिली धूलके फैलनेसे आकाश आच्छादित हो गया तथा सभी दिशाओंमें अन्धकार व्याप्त हो गया । (७१) समुद्र अपना किनारा लाँधकर चारों ओर फैल गया, नदियाँ उल्टी बहने लगीं, बिजलीके गिरनेका भयंकर शब्द होने लगा और पृथ्वीमें भीतरसे उथल-पुथल मच गई । (७२) तलवार, ढाल, कल्प (शस्त्रविशेष) एवं बाण हाथोंमेंसे गिरनेसे विद्याधर भी भयभीत हो गये। 'यह क्या हुआ? यह क्या हुआ ?' ऐसा बोलते हुए वे आकाशमें जल्दी उड़े। (७३)
परमावधिज्ञानसे पर्वतका ऊपर उठाना जानकर भरत चक्रवर्तीकृत जिनमन्दिरोंकी रक्षाके लिये भगवान् बालीको दया आई। (७४) 'राग-द्वेषका त्याग करके जिनोपदेश परके वात्सल्यभावके कारण, न कि अपने जीवनके हेतु, मैं इनकी रक्षा करता हूँ ऐसा सोचकर उसने अपने पैरके अंगूठेसे शिखरको ऐसा दबाया कि अत्यन्त भारके कारण झुके हुए शरीरवाला वह दशमुख बैठ गया । (७५-७६) उसके मुकुटके मोती विखर गये, सिर झुक गया, सब अंग अत्यन्त ढीले पड़ गये और उस समय उत्पन्न पसीनेके समूहसे पानी का प्रवाह बह चला । (७७) जीवनकी आशा नष्ट होनेसे उसने उस समय जो अति भयंकर आवाज की उससे वह जीवलोकमें रावणके नामसे विख्यात हुआ । (७२) मुँहमेंसे निकली हुई उस आवाजको सुनकर मूढ सुभट कवच धारण करके 'क्या है ? क्या है ?' ऐसा बोलते हुए तेजीके साथ अगल-बगल घूमने लगे। (७२)
उस समय अचानक मुनिके तपके प्रभावसे आकाशमें दुन्दुभिका शब्द फैल गया और आकाश मार्गमेंसे देवताओं द्वारा मुक्त पुष्पोंकी वृष्टि होने लगी । (८०) जब अनादरके साथ वालीने अपना अंगूठा अविलम्ब शिथिल किया तब पर्वतका त्याग करके दशमुख बाहर निकला । (८१) शीघ्र ही आकर रावणने प्रणाम किया और मुनिवरसे क्षमायाचना करके तप एवं नियमके बलकी प्रशंसा करता हुआ वह उनकी स्तुति करने लगा कि जिनवरेन्द्रको छोड़कर दूसरेको प्रणाम न करनेकी जो तुम्हारी प्रतिज्ञा है उसकी वजहसे यह अतुल बल प्राप्त हुआ है, ऐसा मैं समझता हूँ। (८२-८३) हे धीरपुरुष !
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