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१२.५३] १२. वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियरो
१३१ एत्थन्तरम्मि जो सो, ठविओ इन्देण लोगपालते । नलकुब्बरो ति नाम, दुल्लङ्घपुरे परिवसइ ॥ ३८ ॥ नाऊण रावणं सो, अट्ठावयपबए समल्लीणं । पेसेइ तस्स दूर्य, रुट्टो नलकुञ्चरो राया ॥ ३९ ॥ संपत्तो चिय दूओ, दिट्टो लङ्काहिवो सभामज्झे । रइओ य सिरपणामो, उवविठ्ठो आसणे भणइ ॥ ४० ॥ नलकुब्बरेण दूओ, विसजिओ देव! तुज्झ पासम्म । सो भणइ एड पेच्छह, दुलपुरि रिवुदुलई ॥ ४१ ।। भणिओ य रावणेणं, जाव अहं नन्दणे जिगहराई । वन्दणनिमितहेर्ड, गन्तूग लहुँ नियत्तामि ॥ ४२ ॥ ताव तुमं वीसन्थो अच्छसु वरकामिणीसु कीलन्तो । रे दूय! भणसु गन्तुं, दुल्लपुराहिवं एवं ॥ ४३ ।। मण-पवणचारुवेगो, दूओ गन्तूण सामिसालस्स । नं रावणेण भणियं, तं सबं साहइ फुडत्थं ॥ ४४ ॥ अह तेण अग्गिपउरो, पायारो जोयणा सयं रइओ । जन्ताणि बहुविहाणि य, रिउभडजीयन्तनासाणि ॥ ४५ ॥ गन्तण नन्दणवणं, वन्दित्ता चेहयाणि भावेणं । पुणरवि य पडिनियत्तो, दहवयगो निययआवासं ॥ ४६ ॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवया, पहत्थपमुहा भडा बलसमग्गा । पेसेइ गहणहेउं, दुल्लङ्घपुरि दहग्गीवो ॥ १७ ॥ पत्ता पेच्छन्ति पुरि, · समन्तओ जलणतुङ्गपायारं । जन्तेसु अइदुलच, भयजगणं सत्तसुहडाणं ॥ ४८ ॥ अह वेढियं समन्थं, अल्लीणा रक्खसा कउच्छाहा । हम्मन्ति वेरिएणं, बहुविविजापओगेहिं ॥ ४९ ।। मारिजन्तेहि तओ, रक्खससुहडेहि पेसिओ पुरिसो। गन्तूण सामियं सो, भणइ पहू मे निसामेहि ॥ ५० ॥ डज्झन्ति अल्लियन्ता, सबत्तो धगधगन्तजलणेणं । मारिजन्ति पहुत्ता, जन्तेसु करालवयणेसु ॥ ५१ ॥ रावणस्य नलकूबरेण सह युद्धम् :सोऊण इमं वयणं, लङ्काहिवमन्तिणो मइपगब्भा । निययबलरक्खणट्टे, जाव उवायं विचिन्तेन्ति ॥ ५२ ॥
ताव य उवरम्भाए, दूई नलकुम्बरस्स महिलाए । संपेसिया य पत्ता, दहमुहनेहाणुरत्ताए ॥ ५३ ॥ रहता था । (३८) अष्टापद पर्वतके ऊपर रावण गया है ऐसा जानकर रुष्ट नलकूबर राजाने उसके पास दूत भेजा। (३९) दूत वहाँ आ पहुँचा। उसने दरबारमें लंकाधिप रावणको देखा और सिर पर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। बादमें आसन ऊपर बैठकर वह कहने लगा कि, हे देव ! नलकूबरने आपके पास दूत भेजा है। उसने कहा है कि शत्रुके द्वारा जिसका उल्लंघन नहीं हो सकता ऐसे इस दुलेघपुरमें आकर तुम मुझे मिलो। (४०-४१) इस पर रावणने कहा कि मैं नन्दनवनमें आये हुए जिनचैत्योंके वन्दनार्थ जाकर शीघ्र ही लौटता हूँ, तबतक तुम विश्वस्त होकर जाओ और उत्तम स्त्रियों में क्रीड़ा करो। हे दूत ! तुम जाकर दुर्लघपुरके अधीशको ऐसा कहो ! (४२-४३)
मन और वायुके समान चार वेगवाला दूत अपने स्वामीके पास गया और रावणने जो कुछ कहा था उसे स्पष्ट रूपसे कह सुनाया। (४४) इस पर उसने अग्निसे व्याप्त सौ योजन विस्तृत किलेकी दीवार बनवाई तथा शत्रुओंके योद्धाओंके जीवनका नाश करनेवाले अनेक प्रकारके यंत्र स्थापित किये (४५) नन्दनवनमें जाकर और वहाँ चैत्योंको भावपूर्वक वन्दन करके रावग अपने आवास में लौट आया। (४६) बादमें शत्रोंसे लैस तथा कवच पहने हुए प्रहस्त आदि सभटोंको सैन्यके साथ दुलेधपुरी छिन लेने के लिए भेजा। (४७) वहाँ पहुँचने पर उन्होंने जलते हुए ऊँचे किलेसे घिरी हई नगरी तथा शत्रुओंके सुभटोंमें भय पैदा करनेवाले अत्यन्त दुलध्य यंत्र देखे । (४८उत्साहित राक्षसोंने उसे चारों ओरसे घेर लिया। अनेक प्रकारको विद्याओंके प्रयोगसे शत्रु द्वारा वे मारे जाने लगे । (४९) मार खाते हुए राक्षस सभटोंने एक आदमी रावणके पास भेजा। उसने जाकर अपने स्वामोसे कहा कि, हे प्रभो ! आप मेरी बात सुनें । (५०) चारों ओर धग-धग करती हुई आगके कारण उस नगरमें प्रवेश करनेवाले सब जल मरते हैं और कराल मुखवाले यंत्रोंके द्वारा बहुतसे मारे जाते हैं (५१) दूतका ऐसा कथन सुनकर लंकाधिपके अत्यन्त बुद्धिशाली मंत्री अपने सैन्यको रक्षाके लिए उपाय सोचने लगे । (५२)
इस बीच दशमुखके स्नेहमें अनुरक्त नलकूबरको उपरंभा नामकी पत्नीने रावणके पास एक दूती भेजी और वह
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