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पउमचरियं ओणमियउत्तिमङ्गो, पुच्छइ लङ्काहिवो मुणिवरिन्दं । केणेव कारणेणं, भयवं ! जेणाऽऽगओ एत्थं ॥ ७३ ॥ भइ तओ मुणिवसहो, कुल-बल - विरियाझ्वण्णणं काउं । माहेसरनयरवई, राया हं आसि सयबाहू ॥ ७४ ॥ पुत्तं सहस्सकिरणं, रज्जे ठविऊण जायसंवेगो । मोक्खत्थं पबइओ, निणवरधम्मुज्जयमईओ ॥ ७५ ॥ बद्धं सहस्सकिरण, सोऊणमिहागओ तुह सगासं । मुञ्चसु इमं सुयं मे रावण ! मा कुणसु वक्खेवं ॥ ७६ ॥ तो भइ रक्खसिन्दो, पूया परिमाण विरइया महई । सा नइपूरेण हया, एयस्स विचेट्टियगुणेहिं ॥ ७७ ॥ पूयाहरणनिमित्ते, बद्धो य विमाणिओ इमो सुहडो । तुज्झ वयणेण साहव ! मुच्चइ नत्थेत्थ संदेहो ॥ ७८ ॥ दहमुहवणेण तओ, सहस्सकिरणो खणेण परिमुक्को। अह पेच्छइ मुणिवसभं, पणमइ य पयाहिणं काउं ॥ ७९ ॥ ओ रावणं, अज्जपभूईं तुमं महं भाया । मन्दोदरीऍ भइणी, सयंपभा ते पणामेमि ॥ ८० ॥ तो भइ सहसकिरणो, न य मच्चू कोइ नाणइ विवेगं । सरए व घणायारो, नासह देहो न संदेहो ॥ ८१ ॥ जइ नाम हवइ सारो, इमेसु भोगेसु अइदुरन्तेसु । तो न य गहिया होन्ती, पबज्जा मज्झ ताएणं ॥ ठविऊण निययरज्जे, पुत्तं आपुच्छिऊण दहवयणं । निस्सङ्गो पबइओ, सहस्सकिरणो पिउसयासे ॥ संभरियं चिय वयणं, नं तं अणरणमित्तसामक्खं । भणियं अईयकाले, तं एयं परिफुडं जायं ॥ जइया हं पढमयरं, परिगिण्हीहामि निणवरं दिक्खं । तइया तुज्झ नराहिव, वत्ता दाहामि निक्खुत्तं ॥ संपेसिओ य पुरिसो, साकेयपुराहिवस्स गन्तुणं । साहइ निणवरविहियं, सहस्सकिरणस्स पवज्जं ॥ सुणिऊण पवरदिक्खं, सहस्सकिरणस्स नणियसंवेगो । अणरण्णो पबइओ, पुतं ठविऊण रज्जम्मि ॥
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तपरूपी लक्ष्मीसे सम्पन्न वह साधु बैठे । ( ७२ ) बादमें लंकाके राजा रावणने सिर झुकाकर उन मुनिवरसे पूछा कि, हे भगवन् ! किस कारण आपका यहाँ पर आगमन हुआ है ? (७३) मुनियोंमें वृषभके समान उन मुनिने अपने कुल, बल एवं वीर्य आदिका वर्णन करके कहा कि मैं माहेश्वर नगरका स्वामी और शतबाहु नामका राजा था। (७४) वैराग्य उत्पन्न होनेपर अपने पुत्र सहस्रकिरणको राजगद्दीपर बिठाकर जिनवरके धर्ममें उद्युक्त मतिवाले मैंने मोक्ष प्राप्तिके लिए प्रव्रज्या अंगीकार की है। (७५) सहस्रकिरण कैद किया गया है ऐसा सुनकर मैं यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। हे रावण! तुम मेरे इस पुत्रको छोड़ दो और इसमें देर मत करो । ( ७६ ) इसपर राक्षसेन्द्र रावणने कहा कि मैंने प्रतिमाओंकी बड़ी भारी पूजा रची थी। इसकी दुश्चेष्टा के फलस्वरूप वह नदी की बाढ़से नष्ट हो गई । (७७) पूजाके विनाशके कारण ही यह सुभट पकड़ा गया है और इस तरह अपमानित हुआ है । हे मुनिवर ! इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आपके आदेश के अनुसार मैं इसे छोड़ता हूँ । (७८) तब रावण की आज्ञासे क्षणभर में सहस्रकिरण मुक्त किया गया । बादमें मुनि-वृषभको देखकर उसने प्रदक्षिणा करके बन्दन किया । (७९) रावणने कहा कि आजसे तुम मेरे भाई हुए हो । मन्दोदरीकी बहन स्वयम्प्रभा मैं तुम्हें देता हूँ । (८०) इसपर सहस्रकिरणने कहा कि मृत्यु कब होगी यह कोई निश्चयपूर्वक नहीं जानता । इसमें सन्देह नहीं कि शरत्कालीन बादल के आकार की भाँति यह देह विनष्ट हो जाती है । (८१) अत्यन्त खराब परिणामवाले इन भोगों में यदि कोई सार होता तो मेरे पिताजीने प्रब्रज्या न ली होती । (५२) रावणसे पूछकर सहस्रकिरणने पुत्रको अपनी गादीपर बिठा कर निःसंग हो पिताके पास दीक्षा ली । (८३)
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पूर्व कालमें अनरण्य नामक मित्रके समक्ष जो वचन कहे थे वे उसे याद आये । वे अब अत्यन्त स्पष्ट हो गये । (८४) उसने कहा था कि हे नराधिप, मैं जब सर्वप्रथम जैनी दीक्षा लूँगा तब तुम्हें निश्चित ही समाचार भिजवाऊँगा । (८५) उसने आदमी भेजा। उसने साकेतपुर के स्वामी अनरण्यके पास जाकर सहस्रकिरणकी जिनवर द्वारा उपदिष्ट दीक्षाके बारेमें कहा । (८६) सहस्रकिरणकी उत्तम दीक्षाके बारेमें सुनकर वैराग्य आनेपर अनरण्यने भी राज्यपर पुत्रको स्थापित करके प्रव्रज्या ली। (८७)
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