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६.७२]
६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो तह तं करेमि एण्हि, धम्म निणदेसियं मुणिपसत्थं । जेणं चिय अन्नभवे, नन्दीसरवन्दओ होहं ॥ ५८ ॥ आगन्तूण पुरवरे, पुत्तं अहिसिञ्चिऊण रज्जम्मि । नामेण वजकण्ठं, पबज्जमुवागओ धीरो ॥ ५९ ॥ अह वजकण्ठराया, पिउचरियं पुच्छई भणइ साहू । दोण्णि नणा वाणियया, पुर्वि एकोयरा आसि ॥ ६० ॥ तत्थ वसन्ताणं चिय, पीती जुवईहि फेडिया ताणं । मिच्छत्तो य कणिट्ठो, जेट्टो पुण सावओ जाओ ॥६१ ॥ तत्थ कणिटेणं चिय, नरवइपुरओ य मारिओ पुरिसो । सो तं परिक्खिऊणं, सहोयरो देइ दबं से ॥ ६२ ॥ उवसमिऊण कणिट्ट, जेट्टो देवाहिवो समुप्पन्नो । सो वि सुरो होऊगं. चविओ जाओ य सिरिकण्ठो ॥ ६३ ॥ बन्धवनेहेण तओ, इन्दो अप्पाणयं पयरिसन्तो । सिरिकण्ठबोहणत्थं, गओ य नन्दीसरं दीवं ॥ ६४ ॥ इन्दस्स दरिसणेणं, तुज्झ पिया सुमरिऊण परजम्मं । पडिबुद्धो पबइओ, एयं ते परिफुडं कहियं ॥६५॥ राया वि वज्जकण्ठो, पुत्तं इन्दाउहप्पभं रज्जे । ठविऊण य निक्खन्तो, पत्तो हियइच्छियं ठाणं ॥६६॥ इन्दाउहप्पभस्स वि. इन्दामयनन्दणो समुप्पन्नो । तस्स वि मरुयकुमारो, मरुयस्स वि मन्दरो पुत्तो ॥ ६७ ॥ मन्दरनराहिवस्स वि, पवणगई खेयराहिवो जाओ। पवणगइस्स 'वि पुत्तो, रविप्पभो चेव उप्पन्नो ॥ ६८ ॥ जाओ रविप्पभस्स वि, राया अमरप्पभो महासत्तो । परिणेइ गुणवई सो, तिकूडसामिस्स वरधूयं ॥ ६९ ॥ वत्ते चिय वीवाहे, पेच्छइ सा तेहि तत्थ आलिहिए । वरकणयचुण्णकविले, पवङ्गमे दोहणले ॥ ७० ॥ अह ते घोरायारे, भीया दट्टण गुणवई सहसा । अमरप्पमं पवन्ना, कम्पन्ती अङ्गमङ्गेसु ॥ ७१ ॥
अमरप्पभो कुमारो, रुट्ठो जेणे' धरणिपट्टम्मि । लिहिया वाणर अहमा, तस्स फुडं निग्गहं काहं ॥ ७२ ॥ करूँगा कि जिससे दूसरे भवमें नन्दीश्वरद्वीपके दर्शन मुझे हो सके ।' (५८) इस तरह सोचकर वह धीर पुरुष अपने नगरमें वापस आया और वन्नकण्ठ नामक अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त करके उसने दीक्षा ली। (५९) वानर वंशकी उत्पत्ति
तत्पश्चात् एक दिन वनकण्ठ राजाने पिताका वृत्तान्त पूछा। इसपर साधुने कहा कि पूर्वकालमें दो सहोदर वणिक थे। (६०) साथमें रहते हुए दोनों भाइयोंको युवतियोंकी प्रीतिने अलगकर दिया। छोटा भाई मिथ्यात्वी हुआ, जब कि बड़ा भाई श्रावक हुआ। (६) वहाँ राजाके समक्ष ही छोटे भाईने एक पुरुषको मारा। उसको बचाकर बड़े भाईने धन दिग। (६२) छोटे भाईको इस प्रकार उपशान्त करके बड़ा भाई इन्द्ररूपसे उत्पन्न हुआ। वह छोटा भाई भी देवरूपसे जल लेकर तथा वहाँ से च्युत होकर श्रीकण्ठ हुआ ! (६३) बादमें भातृस्नेहवश इन्द्र श्रीकण्ठके बोधके लिए अपना उत्कर्ष दिसाता हुआ नन्दीश्वरद्वीपकी ओर गया । (६४) इन्द्र के दर्शनसे तुम्हारे पिताको पूर्वजन्म याद हो गया। वह प्रतिबुद्ध हुँ.. और दीक्षा अंगीकार की।' इस तरह मैंने तुम्हें विस्तारसे यह वृत्तान्त कह सुनाया। (६५) वनकण्ठ राजा भी इन्द्रायुधप्रभ नामके अपने पुत्रको राज्य देकर निकल पड़ा अर्थात् दीक्षा लो और हृदयमें अभीप्सित ऐसा स्थान प्राप्त किया । (६६) इन्द्रायुधप्रभको भी इन्द्रमत नामका एक पुत्र हुआ। उसका मरुत्कुमार तथा मरुत्कुमारका मन्दर नामका पुत्र हुआ। (६७) मन्दर राजाका पवनगति नामका पुत्र विद्याधर राजा हुआ। पवनगतिका पुत्र रविप्रभ हुआ। (६८) रविप्रभका अमरप्रभ नामका पुत्र महासमर्थ राजा हुआ। उसने त्रिकूटस्वामीकी उत्तम कन्या गुणवतीके साथ विवाह किया । (६९) विवाहविधि सम्पन्न होनेपर उस कन्याने विद्याधरियों द्वारा चित्रित उत्तम सोनेके चूर्णसे मटमैले रंगके तथा लम्बी पूँछवाले बन्दर देखे। (७०) भयंकर आकृतिबाले उन बन्दरोंको देखकर एकदम सहमी हुई और इसलिये जिसका प्रत्येक अंग काँप रहा है ऐसी वह गुणवती अमरप्रभके पास गई। (७१) अमरप्रभ कुमारने क्रुद्ध होकर कहा कि जिसने पृथ्वीपर इन अधम वानरोंको चित्रित किया है उसको बराबर शिक्षा करूँगा । (७२) इसपर विविध कलाओं तथा शास्त्रोंमें कुशल मंत्रीने मधुरवचनसे कहा कि
१. वि ताहे रवि-प्रत्यः ।
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