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६. रक्खस वाणरपव्वज्जाविहाणाहियाग
२०९ ॥
एत्थन्तरम्मि लङ्क, भुञ्जइ निग्धायदाणवो सूरो । पडिवक्खअगणियभओ, जो ठविओ असणिवेगेणं ॥ २०६ ॥ अह अन्नया कयाई, पायालपुराउ वन्दणाहेउ । सिरिमालासन्निहिओ, किक्किन्धी पत्थिओ मेरुं ॥ २०७॥ सो वन्दिउं नियत्तो, दक्खिणभाए समुद्दतीरत्थं । महुपबयं महन्तं, पेच्छइ घणसामलायारं ॥ २०८ ॥ अह पेच्छ पेच्छ सुन्दरि ! घणतरु वरकुसुम-पल्लवसणाहं । गुमुगुमुगुमेन्तमहुयर, सबत्तो सुरहिगन्धङ्कं ॥ एयं मोत्तूण गिरिं न मणो मज्झं समुच्छहइ गन्तुं । नयरं सुरपुरसरिसं, करेमि एत्थं न संदेहो ॥ भणिऊण वयणमेयं, तो चडिओ पवयस्स सिहरम्मि । पायार-भवणसोहं, सिग्धं च निवेसियं नयरं ॥ अह निययनामसरिसं, तेण कथं महियलम्मि विक्खायं । सुरपुरसोभायारं, किक्विन्धिपुरं ति नामेणं ॥ सो तत्थ बन्धुसहिओ, अणेयसामन्तपणयचलणजुओ । भुञ्जइ रायवरसिरिं, सम्मद्दिट्ठी निणमयम्मि ॥ चन्द - दिवायरसरिसा, सिरिमालाए सुया समुपपन्ना । पढमो आइचरओ, रिक्खरओ होइ बीओ य ॥ धूया य सूरकमला, जाया वरकमलकोमलसरीरा । कमलद्दहवत्थवा, कमलसिरी चेव पच्चक्खा ॥ रयणपुरम्मि य नयरे, मेरुमहानरवइस्स भज्जाए । जाओ य माहवीए, मयारिदमणो वरकुमारो ॥ दिन्ना य सूरकमला, मयारिदमणस्स वाणरिन्देणं । वत्तं पाणिग्गहणं, किक्विन्धिपुरे अणन्नसमं ॥ अह कण्णपब ओवरि, नयरं चिय कण्णकुण्डलं तेणं । विणिवेसियं महन्तं, सुरपुरसोहं विडम्बन्तं ॥ पायालंकारपुरे, इन्दाणीगब्भसंभवा तइया । जाया सुकेसपुत्ता, देवकुमारा इव सुरूवा ॥ पढमेत्थ होइ माली, तह य सुमालि त्ति नाम विक्खाओ । तइओ य मालवन्तो, अमरकुमारोवमसिरीओ ॥ पत्ता सरीरविद्धिं विज्जाबल - दप्पगबिया जाया । कीलन्ति नहिच्छाए, काणण - वणरम्मदेसेसु ॥ शत्रुके भय से अनभिज्ञ निर्घात नामक शूरवीर दानव लंकाका उपभोग करता था । ( २०६ ) एक दिन वन्दन करने के लिये श्रीमाला के साथ किष्किन्धिने पातालपुर से निकल कर मेरुकी ओर प्रस्थान किया । ( २०७) वन्दन करके वापस लौटते समय मार्ग में उसने दक्षिण भागके समुद्र के किनारे पर आये हुए बड़े भारी तथा बादल के समान श्याम वर्णवाले मधुपर्वतको देखा । ( २०८ ) उसने कहा- हे सुन्दरि ! भौंरे जिस पर गुनगुना रहे हैं ऐसे उत्तम पुष्प एवं पल्लवोंसे युक्त घने पेड़ों से आच्छादित तथा सुगन्धसे व्याप्त इस पर्वतको तुम देखो । ( २०९ ) इस पर्वतको छोड़कर मेरा मन अन्यत्र जानेको उत्साहित नहीं होता। इसमें सन्देह नहीं है कि मैं यहाँ पर सुरपुर अलकाके समान नगर बसाऊँगा । ( २१० ) ऐसे बचन कह कर वह उस पर्वत के शिखर पर चढ़ा और शीघ्र ही क़िले व मकानोंसे सुशोभित एक नगर बसा दिया । ( २११ ) अपने नामसे उसने पृथ्वीतल पर विख्यात तथा देवताओंके नगरकी शोभाका अनुकरण करनेवाले उस नगरका नाम किष्किन्धपुर रखा । ( २१२ ) अनेक सामन्त जिसके चरणयुगलों में नमन करते हैं तथा जो जिनोपदिष्ट धर्म में सम्यग्दृष्टि ( श्रद्धालु ) है ऐसा वह अपने बन्धुओंके साथ राजाओं के योग्य उत्तम लक्ष्मीका उपभोग करने लगा । ( २१३ ) श्रीमालाके चन्द्र एवं सूर्यके सदृश दो पुत्र हुए। पहलेका नाम आदित्यराज तथा दूसरेका नाम ऋक्षराज था । ( २१४ ) उत्तम कमलके समान कोमल शरीरवाली तथा कमलसरोवर में निवास करनेवाली प्रत्यक्ष कमलश्री ( लक्ष्मी ) हो ऐसी सूर्यकमला नामकी एक पुत्री भी थी । ( २१५ )
रत्नपुर नगर में मेरु नामके महाराजाकी पत्नी माधवीसे उत्पन्न मृगारिदमन नामक एक पुत्र था । ( २१६ ) वानरराजने मृगारिदमनको सूर्यकमला दी । किष्किन्धनगरमें उनका अद्वितीय पाणिग्रहण समारोह हुआ । (२१७) कर्ण पर्वतके ऊपर उसने एक बड़ा भारी और सुरपुरकी शोभाका भी तिरस्कार करनेवाला कर्णपुर नामका नगर बसाया । (२१८) पातालालंकारपुरमें सुकेशके इन्द्राणी के गर्भसे देवकुमारोंके समान सुन्दर रूपवाले पुत्र हुए। ( २१९) पहलेका नाम माली, दूसरेका सुमाली तथा देवकुमारोंके सदृश शोभावाले तीसरेका नाम माल्यवान् था । ( २२० ) बड़े होने पर विद्या बल एवं दर्पसे गणित वे कुमार वन एवं उपवनों रम्य प्रदेशोंमें इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे । (२२१) 'दक्षिण दिशामें मत जाना,
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