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९. वालिणिव्वाणगमणाहियारो
बालीव
५ ॥
६ ॥
एत्थन्तरम्मि सेणिय !, आइच्चरयस्स इन्दमालीए । गब्भम्मि समुप्पन्नो, वाली बलविरियसंपन्नो ॥ १ ॥ रूवेण परमरूवो, विज्जाण कलाण गुणसयावासो । सम्मत्तभावियमई, अणन्नसरिसो वसुमईए ॥ २॥ चउसागरपेरन्तं, नम्बुद्दीवं पयाहिणं काउं । नमिऊण जिणहराई, किक्किन्धिपुरं पुणो एइ ॥ ३ ॥ जाओ अणुक्कमेणं, सुग्गीवो तस्सऽणुत्तरो भाया । अन्ना वि निययबहिणी, सिरिप्पभा चेव उप्पन्ना ॥ रिक्खपुरे विय तइया, रिक्खरयसुया महन्तगुण कलिया । नल-नीलनामधेया, हरिकन्ताए समुपपन्ना ॥ आइचरओ वि तया, असासयं जाणिऊण मणुयत्तं । वाकी ठवेइ रज्जे, जुवरज्जे चेव सुग्गीवं ॥ -ग-रह- जुवईओ विच्छड्ड े ऊण बन्धवसिणेहं । पचइओ खायजसो, पासे मुणिविगयमोहस्स ॥ ७ ॥ देहे वि निरवेक्खो, काऊण तवं अणेयवरिसाईं । कम्मट्टनिट्टियट्टो, अबाबाहं समणुपत्तो ॥ ८ ॥ एत्तो रज्जवरसिरी, वालिनरिन्दस्स भुञ्ज माणस्स । वच्चन्ति मास-वरिसा, दियह व सुहावगाढस्स ॥ ९ ॥ एत्थन्तरम्मि सहसा, सहोयरी रावणस्स चन्दणहा । खरदूसणेण सहसा, दिट्ठा मेघप्पभसणं ॥ १० ॥ नाव च्चिय दहवयणो, विवरोक्खो आवलीऍ धूयाए । तणुकञ्चुकारणत्थं वीवाहविहीनिओगेणं ॥ ११ ॥ खरदूसणेणं, अणुरागसमोत्थरन्तहियएणं । विज्जाबलेण हरिया, चन्दणहा चन्दसरिसमुही ॥ १२ ॥
ताव
९. वालीका निर्वाण
वाली सुग्रीवका सामान्य जीवनवृत्तान्त
श्री गौतम गणधर महाराजा श्रेणिकको सम्बोधित करके कहते हैं कि, हे श्रेणिक, इस बीच आदित्यरजाको इन्द्रमाली नामकी पत्नीके गर्भ से बल एवं वीर्यसम्पन्न वाली उत्पन्न हुआ । (१) वह रूपकी दृष्टिसे अत्यन्त सुरूप था, विद्या, कला एवं सैकड़ों गुणका वह आवास था, उसकी बुद्धि सम्यक्त्व से युक्त थी । धरातल पर उसके जैसा दूसरा कोई नहीं था । ( २ ) पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इन चार दिशाओं में आये हुए सागर पर्यन्त फैले हुए जम्बूद्वीपकी प्रदक्षिणा करके और उसमें आये हुए जिनचैत्योंको वन्दन करके वह पुनः किष्किन्धिपुरमें लौट आर्या । (३) उसके पश्चात् उसका छोटा भाई सुग्रीव हुआ । श्रीप्रभा नामकी उसकी अपनी एक दूसरी बहन भी हुई । ( ४ ) उस समय ऋक्षपुर में ऋक्षरजाकी हरिकान्ता से उत्पन्न और बड़े-बड़े गुणोंसे युक्त नलनीला नामकी पुत्री थी । (५)
जिसका यश विख्यात है ऐसे आदित्यरजाने मनुष्य जन्मको अशाश्वत जान वालीको राज्य पर अधिष्ठित करके तथा सुग्रीवको युवराजपद देकर और घोड़े, हाथी, रथ व युवतियोंका तथा बन्धुजनोंके स्नेहका परित्याग करके विगतमोह नामक मुनिके पास दीक्षा अंगोकार की । ( ६-७ ) अपने शरीर में भी आसक्तिरहित उसने अनेक वर्षो तक तप करके और ज्ञानावरणादि आठो कर्मोंको नाश करके अव्याबाध मोक्ष सुख प्राप्त किया । (८) इधर राज्यकी उत्तम लक्ष्मीका उपभोग करते हुए और सुखमें लीन वाली राजाके महीने और वर्ष दिनकी भांति व्यतीत होने लगे (९) खरदूषणका चन्द्रनखाके साथ विवाह-
इस बीच मेघप्रभके पुत्र खरदूषणने सहसा रावणकी बहन चन्द्रनखाको देखा । (१०) जब रावण अपनी आवली नामकी लड़की की विवाह विधिमें संलग्न रहनेके कारण अनुपस्थित था तब अनुरागवश उछलते हुए हृदयवाले खरदूषणने विद्याके बलसे चन्द्रमाके समान मुखवाली चन्द्रनखाका अपहरण किया । (११-१२) पहले न देखा हो ऐसा और शत्रुके छिद्रकी
१- सिरिं प्रत्य• ।
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