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पउमचरियं
[७.९५दट ठूण तं सहारं, जणणी सबायरेण परितुट्टा । रयणासवस्स साहइ, पेच्छसु बालस्स माहप्पं ॥ ९३ ॥ रयणासवेण दिट्ठो. हारलयागहियनिट ठुरकरग्गो । चिन्तेइ तो मणेणं, होहिइ एसो महापुरिसो ॥ ९४॥ नागसहस्सेणं चिय, जो सो रक्खिज्जए पयत्तेणं । सो जणणीऍ पिणद्धो, कण्ठे बालस्स वरहारो ॥ ९५ ॥ रयणकिरणेस एत्तो. मुहाइँ नव निययवयणसरिसाइं। हारे दिट्ठाइँ फुड, तेण कयं दहमुहो नामं ॥ ९६॥ एवं तु भाणकण्णो, जाओ काले य सो वइक्कन्ते । जस्स य भाणुसरिच्छा, कण्णा विह गण्डसोभाए ॥ ९७ ॥ जाया ताण कणिट्टा, चन्दणहा चन्दसोमसरिसमुही। तीए वि हु अणुयवरो, बिहीसणो चेव उप्पन्नो ॥ ९८ ॥ एवं कुमारलोलं, कीलन्तो रावणो पलोएइ । अम्बरयलम्मि विउले, वेसमणं सबबलसहियं ॥ ९९ ॥ को एस अगणियभओ. अम्मो बच्चइ नभेण वीसत्थो । सच्छन्दसुहविहारी, सुरवरलीलं विलम्बन्तो? ॥१०० ॥ मह एस भइणिपुत्तो, वेसमणो नाम निग्गयपयावो । लङ्कापुरीऍ सामी, पुत्तय ! इन्दस्स अग्गभडो ॥ १०१ ॥ तुब्भं कुलागया वि हु, पुत्तय ! लङ्कापुरी मणभिरामा । उबासिऊण निययं, पियामहं तो ठिओ एसो ॥ १०२ ॥ एस पिया ते पुत्तय ! गुरुयमणोरहसयाइँ चिन्तेन्तो । खणमवि न लभइ निदं, तीऍ कए सुन्दरपुरीए ॥ १०३ ॥ जणणिवयणाइँ एवं, सोऊण दसाणणो कउच्छाहो । विज्जासु साहणत्थं, भीमारण्णं वर्ण पत्तो ॥ १०४ ॥ कंबायसत्तभीसण-निणायपडिसदमुक्कबुक्कारं । सुर-सिद्ध-किन्नरा वि य, जस्स य उवरिं न वच्चन्ति ॥ १०५॥ आबद्धजडामउडा, उवरि सिहामणिमऊकयसोहा । काऊण समाढत्ता, तिणि वि घोरं तवोकम्मं ॥ १०६ ॥
उसे हारयुक्त देखकर माता सम्पूर्ण आदरके साथ अत्यन्त तुष्ट हुई और रत्नश्रवासे कहने लगी कि बालकका माहात्म्य तो देखो। (९३) हार रूपी लताको निष्ठर उँगलियोंसे पकड़े हुए उस बालकको रत्नश्रवाने देखा और मनमें सोचने लगा कि यह भविष्यमें एक महान् पुरुष होगा। (९४) हज़ारों नाग जिसकी सावधानीके साथ रक्षा करते थे उस उत्तम हारको माताने बालकके गलेमें पहनाया। (९५) रत्नोंकी किरणों के कारण उसके मुखके जैसे ही दूसरे नौ मुख हारमें अत्यन्त स्पष्ट दिखाई दिये, जिससे उसका नाम दशमुख रखा गया। (९६) इसी प्रकार समय बीतने पर भानुकर्णका जन्म हुआ। उसके गण्डस्थलकी शोभाके लिए भानुके सदृश कान थे। (९७) इन दोनों के पश्चात् चन्द्रके समान सौम्य मुखवाली चन्द्रनखा नामकी उनकी छोटी बहन हुई। उसके बाद उसका छोटा भाई विभीषण उत्पन्न हुआ। (९८)
इस प्रकार कुमार सुलभ क्रीड़ा करते हुए रावणने एक दिन विशाल आकाशमें अपने सम्पूर्ण सैन्यके साथ वैश्रमणको देखा । (९९) हे माता ! भयको बिलकुल परवाह न करके अपनी इच्छानुसार सुखपूर्वक विचरण करनेवाला तथा इन्द्रकी लीलाकी भी विडम्बना करनेवाला यह कौन विश्वासपूर्वक आकाशमार्गसे जा रहा है? (१००) ऐसा पूछने पर माताने रावणको कहा कि, हे पुत्र ! यह वैश्रमण नामका मेरा भानजा है। चारों ओर फैले हुए प्रतापवाला वह लंकापुरीका स्वामी और इन्द्रका मुख्य सुभट है । (१०१) हे पुत्र! वह मनोहर लंकापुरी कुल-परम्परासे तुम्हारी है। अपने पितामहको निर्वासित करके यह वहाँ अधिष्ठित हुआ है। (१०२) हे पुत्र ! बड़ी-बड़ी सैकड़ों मनोरथोंसे चिन्तित तुम्हारे पिता उस सन्दर नगरीके कारण क्षणभर भी नींद नहीं लेते । (१०३) अपनी माताके ऐसे वचन सुनकर उत्साहित दशानन विद्याओंकी साधनाके लिये भीमारण्य नामक वनमें गया। (१०४) रावण आदिकी विद्यासाधना
वह वन मांसभक्षो क्रूर प्राणियोंकी भयोत्पादक ध्वनि व प्रतिध्वनिसे ऐसी तो गर्जना करता था कि उसके ऊपरसे देव, सिद्ध और किन्नर तक नहीं जाते थे। (१०५) ऐसे वनमें जटाजूट बाँधे हुए और उसके ऊपर रखी हुई शिखामणिकी किरणोंसे शोभित वे तीनों भाई घोर तप करने लगे । (१०६) उन्हें एक लाख जपसे प्राप्त होनेवाली
१. परिधापितः। २. अनुजवरः । ३. क्रव्याद ।
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