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पउमचरियं
मन्तीहि समुद्दिट्ठा, बहवे विज्जाहरा बलसमिद्धा । अनेण तओ भणियं, जोगा इन्दस्स वरकन्ना ॥ ४ ॥ अह ते मए भणिया, नयसत्थवियारया महामन्ती । मज्झं किर परिणामो, दिज्जइ कना दहमुहस्स ॥ ५ ॥ बिज्जा सहस्सधारी, अतुलियबलविकमो सुरूवो य । सुन्दरकुलसंभूओ, गुणेहि दूरं समुबह ॥ ६ ॥ मन्तीहि समणुनायं, एवं पहु ! जह तुमे समुद्दिट्ठ । कल्लाणसमारम्भो, कीरउ मा णे चिरावेह ॥ ७ ॥ सुभलम्माकरणजोए, कन्नं घेत्तूण सयलपरिवारो । दहवयणपुराभिमुहो, मओ पयट्टो नभयलेणं ॥ ८ ॥ गयणेण वच्चमाणो, भीमारण्णस्स मज्झयारम्मि । पेच्छइ मणाभिरामं नगरं वरतुङ्गपायारं ॥ ९ ॥ सबा तबलाय - सम्मेय-ऽट्ठावयाण मज्झम्मि । तं भीममहारण्णं, नत्थ पुरं सुरपुरायारं ॥ १० ॥ नयरस्स तस्स पासे, ओइण्णो निययवाहिणीसहिओ । पेच्छइ मओ मणोज्जं, भवणं सरयम्बुयायारं ॥ ११ ॥ भवणं मओ पविट्ठो, अह पेच्छइ दारियं तर्हि एकं । भणिया य कस्स दुहिया ?, कस्स व एयं महाभवर्णं ? ॥ १२ ॥ सा भइ मज्झ भाया, दहवयणो नामओ य चन्दणहा । खग्गस्स रक्खणट्टा, ठविया हं चन्दहासस्स ॥ तावच्चिय दहवयणो, मेरुं गन्तूण चेइयघराइं । संधुणिय षडिनियत्तो, तं चैव गिहं समणुपत्तो ॥ काऊण समायारं, मयसहिया मन्तिणो दहमुहस्स । मारीचि वज्जमज्झो, गयणतडी वज्जनेत्तो य ॥ मरुदुज्जउमासेणे, मेहावी सारणो सुगो मन्ती । अन्ने वि एवमाई, दट्ठूण दसाणणं तुट्ठा ॥ काऊण विणयपणया, भणन्ति मन्ती सुणेह वयणऽम्हं । दहमुह ! एगग्गमणो, कारणमिणमो निसामेहि ॥ सुरसंगीयाहिवई, वेयढे दक्खिणाऍ सेढीए । एसो मओ त्ति नामं, विज्जाहरपत्थिवो सूरो ॥ घे निययधू, तुझ गुणायर ! विसिलायण्णं । भडचडयरेण सहिया, एत्थं चिय आगया सिग्धं ॥
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कहा कि यह उत्तम कन्या इन्द्रके योग्य है । ( ४ ) इस पर नीति एवं शस्त्रोंका विचार करनेवाले महामन्त्रियोंसे मयने कहा कि मेरा तो ऐसा विचार है कि यह कन्या दशमुखको दी जाय । ( ५ ) यह दशमुख हजारों विद्याओंको धारण करनेवाला है, इसका बल एवं विक्रम अद्वितीय है, यह सुन्दर है और उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ है तथा गुणोंके कारण दूर तक प्रसिद्ध है । (६) मन्त्रियोंने अनुमति दी कि हे प्रभो ! आपने जो कुछ कहा वह योग्य है, अतः मंगल-समारम्भ करो और अब विलम्ब मत करो । ( ७ )
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शुभ लग्न एवं करणका योग होने पर कन्याको लेकर मयने सम्पूर्ण परिवारके साथ आकाशमार्गसे दशवदनके नगरकी ओर प्रस्थान किया । (८) गगन मार्गसे जाते हुए उसने भीमारण्यके बीच सुन्दर एवं ऊँचे और उत्तम प्राकारसे परिवेष्टित एक नगर देखा । (९) जहाँ सुरपुर अलकाके आकारका वह नगर बसा था वह भीम महारण्य सर्वावर्त, बलाहक, सम्मेतशिखर तथा अष्टापद पर्वतोंके बीच था । (१०) अपनी सेनाके साथ मय उस नगर के पास नीचे उतरा । वहाँ उसने शरत्कालीन जलके समान निर्मल वर्णका एक मनोहर भवन देखा । (११) उस भवन में प्रवेश करने पर मयने वहाँ एक लड़की देखी । उसने छा कि तुम किसको लड़की हो और यह विशाल भवन किसका है ? (१२) उसने कहा कि दशमुख मेरा भाई है और मेरा नाम चन्द्रनखा है । चन्द्रहास नामक खड्गकी रक्षा के लिए मैं यहाँ नियुक्त की गई हूँ । (१३) इस बीच दशवदन भी मेरु पर जाकर और चैत्यगृहोंकी स्तुति करके लौटा और उसी घरमें आ पहुँचा । (१४) मयसहित मंत्रियोंने दशमुख का यथोचित आदर-सत्कार किया। दशाननको देखकर मारीच, वकामध्य, गगनतडित् वज्रनेत्र, मरुत्, उर्ज, उग्रसेन, मेघा, सारण, शुक तथा दूसरे भी सन्तुष्ट हुए । (१५-१६) विनयोपचार करके मंत्रियोंने झुककर कहा कि, हे दशमुख ! तुम एकाग्रमन होकर हमारा कथन तथा यहाँ आनेका कारण सुनो । ( १७ ) वैताद्व्यपर्वतकी दक्षिण श्रेणी में आये हुए सुरसंगीत नामक नगरके अधिपति ये शूरवीर मय विद्याधरोंके राजा । (१८) हे गुणाकर! तुम्हारे लिये विशिष्ट लावण्यवाली अपनी
१. तावं चिय मु० ।
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