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पउमचरियं
[८.१२४धणओ वि नक्खराया. कयपरिकम्मो तिगिच्छएसु पुणो। ठविओ सभावरूवो, बल-विरियसमुज्जलसिरीओ॥ १२४॥ चिन्तेइ तो मणेणं, हा ! कर्ट विसयरागमूढेणं । बहुवेयणावगाढं, दुक्खं चिय एरिसं पत्तं ॥ १२५ ॥ कल्लाणबन्धवो मे, दसाणणो जेण रणमुहनिहेण । बद्धो वि मोइओ है, सिग्घं गिहवासपासेसु ॥ १२६ ॥ मुणियपरमत्थसारो, पबज्ज गेण्हिऊण वेसमणो । आराहियतवनियमो, पत्तो अयरामरं ठाणं ॥ १२७॥ अह तस्स तं विचित्तं, उवणीयं धणयसन्तियं दिछ । मणिरयणपज्जलन्तं, पुप्फविमाणं मणभिरामं ॥ १२८ ।। वरमन्ति-सुय-पुरोहिय-बन्धवजणविविहपरियणाइण्णो । आरुहइ वरविमाणं, दसाणणो रिद्धिसंपन्नो ॥ १२९ ॥ वरहार-कडय-कुण्डल-मउडालंकारभूसियसरीरो । ऊसियसियायवत्तो, चामरधुबन्तधयमालो ॥ १३० ॥ नामेण कुम्भयण्णो, सहोयरो तस्स गयवरारूढो । बीओ वि रहवरत्थो, बिहीसणो पङ्कयदलच्छो ॥ १३१ ॥ सीहो सरहो य तहा, मारीई गयणविज्जुनामो य । वज्जो य वज्जमज्झो, वज्जक्खो चेव होइ बुहो ॥ १३२ ॥ सुय सारणो सुनयणो, मओ य तह एवमाइया बहवे । विज्जाहरसामन्ता, सविभवपरिवारिया मिलिया ॥ १३३ ॥ सो एरिसबलसहिओ, उप्पइओ उययसामलं गयणं । वच्चइ य दाहिणदिसं, लङ्कानयरीसवडहुत्तो ॥ १३४ ॥ अह पेच्छिऊण पुहई आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । पुच्छइ दसाणणो चिय, विणयं काऊण य सुमालिं ॥ १३५ ।। दीसन्ति पबओवरि, सरियाकूलेसु गाम-नयरेसु । पडिया सङ्खदलनिभा, मेहा इव सरयकालम्मि ॥ १३६ ॥ सिद्धे नमंसिऊणं, भणइ सुमाली दसाणणं सुणसु । वच्छय ! न होन्ति एए, पडिया मेहा धरणिवढे ।। १३७ ॥ . धवलब्भसंन्निगासा, विरइयपायार-गोउराडोवा । दीसन्ति पुत्त ! एए, जिणालया रयणविच्छुरिया ॥ १३८ ॥ दसमो भरहाहिवई, हरिसेणो नाम आसि चक्कहरो । तेण इमे भुवणयले, जिणालया कारिया बहवे ॥ १३९ ।।।
चिकित्सकोंके द्वारा उपचार किये जानेके बाद यक्षराज धनद भी अपने असल बल, वीर्य तथा समुज्ज्वल शोभायुक्त रूपमें आ गया। (१२४) वह मनमें सोचने लगा कि अफसोस है ! विषयोंकी आसक्तिके कारण मूढ मैंने अत्यन्त वेदनासे परिपूर्ण ऐसा दुःख प्राप्त किया है। (१२५) दशानन मेरा कल्याणकारी बन्धु है जिसने युद्धके बहाने मुझे बद्ध होने पर भी गृहवासके बन्धनोंसे शीघ्र ही मुक्त कर दिया। (१२६) इस प्रकार परमार्थ वस्तुका सार जानकर वैश्रमणने प्रव्रज्या अंगीकार की और तप एवं नियमकी आराधना करके अजरामर स्थान प्राप्त किया । (१२७ )
इसके पश्चात् धनदके पास जो दिव्य, मणि एवं रत्नोंसे देदीप्यमान तथा मनोहर पुष्पक विमान था वह उसके (रावणके) पास लाया गया। (१२८) उत्तम मंत्री, पुत्र, पुरोहित, बान्धवजन तथा अनेकविध नौकर-चाकरोंसे घिरा हुआ ऋद्धिसम्पन्न दशानन उस उत्तम विमान पर चढ़ा । (१२९) उत्तम हार, कटक, कुण्डल, मुकुट तथा अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाला, सफेद छत्र धारण करनेवाला तथा चामर डुलानेसे जिसकी ध्वजपंक्ति हिल रही है ऐसा कुम्भकर्ण नामका उसका भाई गजवरके ऊपर आरूढ़ हुआ। पंकजके पत्रके समान विशाल नेत्रोंवाला दूसरा भाई विभीषण रथके ऊपर सवार हुआ। (१३०-१३१) सिंह, शरभ, मारीचि, गगनविद्युत्, वज्र, वज्रमध्य, वज्राक्ष, शुक, सारण, सुनयन एवं मय तथा दूसरे बहुतसे विद्याधर सामन्त अपने वैभव एवं परिवार के साथ इकट्ठे हुए। (१३२-१३३) ऐसे सैन्यके साथ वह जलके समान नीलवर्णवाले आकाशमें उड़ा और लंकानगरोके सम्मुख दक्षिण दिशाको ओर प्रयाण किया। (१३४) मार्गमें बाराबगीचे और वनोंसे समृद्ध पृथ्वीको देखकर रावणने सुमालोसे विनयपूर्वक पूछा कि इस पर्वत पर आई हुई नदियोंके किनारों पर बसे हुए गाँव व शहरों में शंखके समूहके-से तथा शरत्कालीन बादलोंके-से पड़े हुए क्या दिखाई पड़ते हैं ? (१३५-१३६) सिद्धोंको नमस्कार करके सुमालीने दशाननसे कहा कि, हे वत्स! तुम सुनो, ये पृथ्वीतल पर गिरे हुए बादल नहीं हैं। (१३७) हे पुत्र ! ये जो सफेद बादल जैसे, प्राकार एवं गोपुर आदिके निर्माणसे सजाये गये तथा रत्नोंके कारण देदीप्यमान दिखाई देते हैं, वे तो जिनमन्दिर हैं। (१३८) हरिषेण नामका भरतक्षेत्रका अधिपति और दसौं चक्रवर्ती पहले
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