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पउमचरियं
[६.४४नच्चन्ति य वग्गन्ति य, जूवाउलयन्ति अन्नमन्नस्स । वाणरचडुलसहावा, जाया अइवल्लहा तस्स || ४४ ॥ 'किक्किन्धिपबओवरि, भवण-ऽट्टालय-सुवण्णपायारं । चोद्दसजोयणविडलं, किक्किन्धिपुरं कयं तेण ॥ ४५ ॥ पासाय-तुङ्गतोरण-मणिरयणमऊहभत्तिविच्छुरियं । अमरपुरस्स व सोहं, हाऊण व होज निम्मवियं ॥ ४६ ॥ जं जं जणो वि मग्गइ, उवगरणा-ऽऽभरण-भोयणाईयं । तं तत्थ हवइ सबं, विज्जाभावेण सन्निहियं ॥ ४७ ॥ एवंविहम्मि नयरे, पउमासहिओ अणोवमं रज्ज । भुञ्जइ सया सुमणसो, सुरलोगगओ सुरिन्दोध ॥ १८ ॥ अह अन्नया कयाई, भवणस्सुवरि ठिओ पलोएन्तो । पेच्छइ नहेण जन्तं, इन्दं नन्दीसरं दीवं ॥ ४९ ॥ गय-वसह-तुरय-केसरि-मय-महिस-बराहवाहणारूढा । वच्चन्ति देवसङ्घा, पूरन्ता अम्बरं सयलं ॥ ५० ॥ सरिऊण पुबजम्म, भणइ निवो सुरवरा इमे सबै । नन्दीसरवरदीव, वन्दणहेउम्मि वच्चन्ति ॥ ५१ ॥ अहमवि सुरेहि समयं, दीवं नन्दीसरं पयत्तेणं । गन्तूण चेइयाई, करेमि थुइमङ्गलविहाणं ॥ ५२ ।। अह कोचविमाणेणं. गयणेणं पत्थियस्स वेगेणं । मणुसुत्तरस्स उवरिं, गइपडिहाओ य से जाओ ॥ ५३ ॥ सो पेच्छिऊण देवे, वोलन्ते माणुमुत्तरं सेलं । परिदेविउं पयत्तो, सोगभरापूरियसरीरो ।। ५४ ॥ हा ! कट्ट चिय पावो, नो हं नन्दीसरं न संपत्तो । विहलमणोरहभावो, भग्गुच्छाहो फुडं जाओ ॥ ५५ ।। नन्दीसरवरदीवे, जह पूया चेइयाण विरएउं । भावेण नमोकार, पसन्नमणसो करिस्सामि ॥ ५६ ॥ जे चिन्तिया महन्ता, मणोरहा मन्दभागधेएणं । ते मे फलं न पत्ता, उदाण अहम्मकम्मस्स ॥ ५७ ॥
एक दूसरेकी जूएँ निकालते थे। वे उसके अत्यन्त प्रिय हो पड़े। (४४) किष्किन्धि पर्वतके ऊपर भवन अट्टालिका एवं स्वर्ण शकारसे युक्त चौदह योजन विस्तृत किष्किन्धि नामकी नगरी उसने बसाई । (४५) उसके द्वारा निर्मित प्रासाद, ऊँचे तोरण, नगि व रत्नांकी किरणोंसे रंगविरंग होकर प्रकाशित वह नगरी देवनगरी अलकाका भी तिरस्कार करती थी। (४६) कोई भी मनुष्य उपकरण, आभरण तथा भोजन आदि जो कुछ चाहता था, वह सब उसे विद्याके प्रभावसे वहाँ मिल जाता था। (४७) ऐसी नगरी में सुखी वह देवलोकके इन्द्रको भाँति पद्मा रानीके साथ अनुपम राज्यका सदा उपभोग करता था। (४८)
एक दिन अपने भवनके ऊपर खड़े होकर वह अवलोकन कर रहा था तब उसने आकाशमार्गसे नन्दीश्वर द्वीपकी ओर जाते हुए इन्द्रको देखा । (४९) हाथी, बैल, घोड़े, सिंह, हरिण, भैस एवं सूअर सदृश वाहनोंमें आरूढ़ देवताओंके समूह, मानों सारे आकाशको भर रहे हों इस तरह, जा रहे थे। (५०) पूर्व जन्मका स्मरण करके राजाने कहा कि ये सब देवता हैं और वन्दनके लिए नन्दीश्वरद्वीपको ओर जा रहे हैं । (५१) मैं भी उद्यम करके देवताओंके साथ नन्दीश्वरद्वीप जाऊँ और चैत्योंमें स्तुति व मंगलकार्य करूँ। (५२) नभोमार्गसे जाते हुए राजाके तीव्र गतिशील क्रौंचविमानका मानुषोत्तर पर्वतके' ऊपर गतिरोध हुआ। (५३) मानुषोत्तर पर्वतका अतिक्रमण करनेवाले देवोंको देखकर शोकसे व्याप्त शरीरवाला वह विलाप करने लगा कि-'अत्यन्त दुःख है कि पापी मैं नन्दीश्वर न पहुँच पाया। मेरे मनोरथका भाव विफल हो गया और मेरा उत्साह भी अत्यन्त ही भग्न हो गया । (५४-५५) मेरा मनोरथ था कि मैं नन्दीश्वर द्वीपमें चैत्योंकी पूजा रचूँगा और आनन्दविभोर होकर भावपूर्वक नमस्कार करूँगा । (५६) मंदभाग्य मैंने जो बड़े-बड़े मनोरथ किए थे वे सब मेरे पाप कर्मके उदयसे सफल न हुए। (५७) इसलिए जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट तथा मुनियों द्वारा प्रशंसित धर्मका मैं यहींपर ऐसा आचरण
१. किंकिंधि-प्रत्य० । २. पहले कहा जा चुका है कि जम्बूद्वीप लवण समुद्रसे वेष्टित है और लवणसमुद्र धातको खण्डसे घिरा हुआ है। धातकीखण्डको घेर कर उससे दूने विस्तारवाला अर्थात् आठ लाख योजनका कालोदधि पड़ा है। कालोदधिके चारों ओर सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्करवरद्वीपहै। पुष्करवरद्वीपके बीचमें गोलाकार एक मानुषोत्तर नामक पर्वत है जो उसे दो भागोंमें विभक करता है। इस पर्वतके भीतर भीतर अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और आधे पुष्करवरद्वीपमें ही मनुष्यकी वस्ती है। कैसा भी ऋद्धिसम्पक मनुष्य क्यों न हो, पर इस मानुषोत्तर पर्वतको लांघकर वह उस पार नही जा सकता।
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