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पउमचरियं
[५. २०२० काऊण तवमुयार, उप्पाडिय केवलं सह सुएणं । आउक्खए महप्पा, सगरो सिद्धि समणुपत्तो ॥२०२॥ अह भगिरही वि रजं, कुणइ महाभडसमूहपरिकिण्णो । साएयपुरवरीए, इन्दो जह देवनयरीए ॥२०॥ भगीरथपूर्वभवःअह भगिरही कयाई, गन्तूण य पणमिऊण मुणिवसहं । तत्थेव सन्निविट्ठो, नच्चासन्ने सुणिय धम्मं ॥२०॥ सुयसागरमणगारं, पुच्छइ तं भगिरही कुमारवरो । केणेव कारणेणं, ताणं मज्झे दुवे न मया ? ॥२०५॥ अह भणइ मुणिवरो सो, गच्छो सम्मेयपवयं चलिओ। सणिय विहरन्तो चिय, संपत्तो अन्तिमं गामं ॥२०६॥ दट्टण समणसङ्घ, गामजणो तस्स कुणइ उवसग्गं । कुम्भारेण निसिद्धो, निन्दन्तो फरुसवयणेहिं ॥२०७॥ चोरत्तं पडिवन्नो, तत्थेगो गामवासिओ पुरिसो । तस्सऽवराहनिमित्तं, गामो दड्डो नरिन्देणं ॥२०८॥ कुम्भारो वि य अन्नं, गामं आमन्तिओ गओ तइया । सो तत्थ नवरि एक्को, न य दड्डो कम्मजोएणं ॥२०९॥ मरिऊण कुम्भयारो, वणिओ जाओ महाधणसमिद्धो । वाराडयम्मि एत्तो, गामो जाओ समं तेणं ॥२१०॥ तत्तो वि करिय कालं, वणिओ सो नरवई समुप्पन्नो । गामा वि माइवाहा, जाया हत्थीण परिमलिया ॥२११॥ जाओ नरवइ समणो, देवो होऊण वरविमाणम्मि । तत्तो चुओ समाणो, भगिरहिराया तुम जाओ ॥२१२॥ जो वि हु सो गामजणो, कालं काऊण विविहजाईसु । कम्माणुभावजणिया, सगरस्स सुया समुप्पन्ना ॥२१३॥ सङ्घस्स निन्दणं कुणइ जो नरो राग-दोसपडिबद्धो । सो भवसहस्सघोरे, पुणरुत्तं भमइ संसारे ॥२१४॥ सुणिऊण निययचरियं, भवपरियट्टं च सयरपुत्ताणं । समणो होऊण चिरं, भगीरही सिद्धिमणुपत्तो ॥२१५॥
एयं ते परिकहियं, चरियं सयरस्स पत्थवुप्पन्नं । एत्तो मगहनराहिह्व!, जं पत्थुय तं च वो सुणसु ॥२१६॥ पत्रके साथ उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। आयुका क्षय होनेपर महात्मा सगरने मोक्षपद प्राप्त किया । (२०२) भगीरथ का पूर्वभव
इधर बड़े-बड़े सुभटोंके समूहसे घिरा हुआ भगीरथ भी अलकापुरीमें इन्द्रकी भाँति साकेत नगरीमें राज्य करने लगा। (२०३) एकबार भगोरथ मुनिवरके पास गया और प्रणाम करके वहीं समीपमें बैठकर धर्मोपदेश सुनने लगा। (२०४) वहाँ कुमार भगीरथने श्रुतसागर मुनिवरसे पूछा कि किस कारण उन सबके बीच में हम दो हो न मर पाये। (२०५) इसपर उस मुनिवरने कहा कि एकबार एक संघ सम्मेतशिखरकी ओर जारहा था। धीरे-धीरे विहार करता हआ वह अन्तिम गाँवमें आ पहुँचा । (२०६) श्रमणसंघको देखकर, एक कुम्भारके द्वारा कठोर वचनोंसे निन्दा किये जानेपर भी, गाँवके लोगोंने बहुत उपद्रव मचाया । (२०७) उस गाँवमें रहनेवाले एक पुरुषने चोरी की थी। इस अपराध पर राजाने सारा गाँव जला डाला । (२०८) आमन्त्रण मिलनेसे वह कुम्भार दूसरे गाँव गया था, अतः भाग्यवश वह अकेला न जला । (२.९) कुम्भार मरकर विपुल धनसे समृद्ध एक वणिक्के रूपसे उत्पन्न हुआ। गाँवके दूसरे सबलोग भी यराटक (वगड़-विदर्भ ) में उत्पन्न हुए । (२१०) वहोसे भी मरकर वह वणिक् राजा हुआ। क्षुद्र जन्तुओंसे बसे हुए उस गाँवको भी हाथियोंने कुचलकर तहसनहस कर डाला । (२११) वह राजा श्रमण हुआ और मरकर उत्तम विमानमें देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर तुम भगीरथ राजा हुए हो। (२१२) जो गाँवके दूसरे लोग थे वे भी मरकर और कर्मके विपाक म्वरूप विविध जातियोंमें जन्म लेकर सगरके पुत्र रूपसे उत्पन्न हुए। (२१३) राग-द्वेषसे युक्त जो मनुष्य संघकी निन्दा करता है वह हजारों घोर जन्मोंसे व्याप्त संसारमें बारबार जन्म लेता है।' (२१४) इस प्रकार अपना चरित तथा सगरके पुत्रोंका भवभ्रमण सुनकर भगीरथ श्रमण बना और चिरकाल तक दीक्षा पालकर उसने सिद्धि प्राप्त की। (२१५) गौतम गणधर कहते हैं कि हे मगधाधिप श्रेणिक ! सगर सम्बन्धी यह वृत्तान्त मैंने तुमसे कहा। अब जो प्रस्तुत है वह तुम मुनो । (२१६)
१. कुमारवहं-प्रत्य।
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