________________
२. ११८]
२. सेणियचिंताविहाणं चिन्तेऊण पवत्तो, भणियं वीरेण धम्मसंजुत्तं । चक्कहराइनराणं, भुवणमिणं हवइ परिहाणं ॥ १०४ ॥ पउमचरियम्मि एत्तो, मणो महं कुणइ परमसंदेहं । कह वाणरेहि निहया, रक्खसवसहा अइबला वि? ॥ १०५॥ जिणवरधम्मेणं चिय, महइमहाकुलसमुब्भवा जाया । विज्जासयाण पारं. गया य बलगबिया वीरा ॥ १०६ ॥ सुवन्ति लोयसत्थे, रावणपमुहा य रक्खसा सबे । वस-लोहिय-मंसाई-भक्खण-पाणे कयाहारा ॥ १० ॥ किर रावणस्स भाया. महाबलो नाम कुम्भयण्गो त्ति । छम्मासं विगयभओ, सेज्जासु निरन्तरं सुयइ ॥ १०८ ॥ जइ वि य गएसु अङ्गं, पेल्लिज्जद गरुयपचयसमेसु । तेल्लघडेसु य कण्गा, पूरिज्जन्ते सुयन्तस्स ।। १०९ ॥ पडपडहतूरसई, न सुणइ सो सम्मुहं पि वज्जन्तं । न य उट्टेइ महप्पा, सेज्जाए अपुण्णकालम्मि ॥ ११० ॥ अह उडिओ वि सन्तो, असणमहा (णामह) घोरपरिगयसरीरो। पुरओ हवेज जो सो, कुञ्जर-महिसाइणो गिलइ ॥१११॥ काऊण उदरभरणं, सुर-माणुस-कुञ्जराइबहुएमु । पुगरवि सेज्जारूढो, भयरहिओ सुयइ छम्मासं ॥ ११२ ॥ अन्नं पि एव सुबइ, जह इन्दो रावणेग संगामे । जिणिऊग नियलबद्धो, लङ्कानयरी समागीओ ॥ ११३ ॥ को जिणिऊण समत्थो, इन्दं ससुरा-ऽसुरे वि तेलोक्के । जो सागरपेरन्तं, जम्बुद्दीवं समुद्धरइ ॥ ११४ ॥ एरावणो गइन्दो, जस्स य वज्ज अमोहपहरत्थं । तस्स किर चिन्तिएण वि, अन्नो वि भवेज्ज मसिरासिं(सी) ॥११५॥ सीहो मएण निहओ, साणेण य कुञ्जरो जहा भग्गो । तह विवरीयफ्यत्थं, कईहि रामायणं रइयं ॥ ११६ ॥ अलियं पि सबमेयं, उववत्तिविरुद्धपच्चयगुणेहिं । न य सद्दहन्ति पुरिसा, हवन्ति जे.पण्डिया लोए ॥ ११७ ॥ एवं चिन्तन्तो चिय, संसयपरिहारकारणं राया । जिणदरिसगुस्सुयमणो, गमणुच्छाहो तओ जाओ ॥ ११८ ॥
वह ऐसा सोचने लगा कि-'धर्मके कारण ही चक्रवर्ती श्रादि पुरुषोंका इस लोकमें जन्म होता है ऐसा भगवान् महावीरने कहा है। (१०४) परन्तु पद्मचरितके बारेमें विचार करनेपर मेरा मन अत्यन्त सन्देहशील होता है कि अतिबलशाली राक्षसोंको वानरोंने कैसे मारा? (१०५) बलसे गर्वित वे वीर राक्षस जिनवरके धर्मकी वजहसे बड़े-बड़े महान् कुलोंमें उत्पन्न हुए थे और सैकड़ों विद्याओंमें पारंगत हुए थे। (१०६) लौकिक शास्त्रोंमें ऐसा सुना जाता है कि रावण आदि सभी राक्षस मांस, रक्त एवं चरबी आदिका भक्षण और पान करते थे। ( १०७) ऐसा भी सुना जाता है कि कुम्भकर्ण नामका रावणका महाबलशाली भाई निर्भय होकर निरन्तर छः मास तक शैयामें सोता रहता था। (१०८) सोए हुए उसके अंग यदि बड़े भारी पर्वतके समान हाथियोंसे कुचले जायँ, घड़ों तेलसे उसके कान भरे जायँ, अथवा बड़े-बड़े नगारों और इसरे वाद्योंकी वनका भी भेद करे ऐसी ध्वनि उसके सामने की जाय तो भी समय पूर्ण न होने पर वह महात्मा शैया परसे नहीं उठता था। (१०९-१०) जगने पर उसका शरीर भूखसे इतना व्याकुल हो उठता था कि उसके सामने हाथी, भैंस आदि जो कुछ आता उसे वह निगल जाता था। (१११) देव, मनुष्य, हाथी आदि बहुतोंको अपने उदरमें समानेके बाद वह निर्भय होकर पुनः छः मासके लिये शैया पर आरूढ़ होकर सो जाता था। (११२) दूसरा भी ऐसा सुना जाता है कि इन्द्रको लड़ाई में हराकर और उसे शृङ्खलासे बाँध कर रावण उसे लंका नगरीमें लाया था। (११३) जो सागर पर्यन्त फैले हुए जम्प को भी उठानेमें समर्थ हो उस इन्द्रको देव एवं दानवोंसे युक्त इस त्रिलोकमें कौन जीतनेमें समर्थ है ? (११४) जिसक पास ऐरावत जैसा गजेन्द्र हो और अमोघ प्रहारके लिए वन हो उसका तो केवल विचार करने पर ही दूसरा (शत्रु) काजलका ढेर हो जाता है !(११५) 'मृगने सिंहको मार डाला', 'कुत्तेने हाथीको भगा दिया', ऐसी विपरीत और असम्भव बातोंसे भरी हुई रामायण कवियोंने रची है। (११६ ) यह सब झूठ है और तर्क एवं विश्वासके विरुद्ध है। जो पण्डित हैं वे ऐसी बातों में श्रद्धा नहीं रखते।' (११७ ) ऐसा सोच कर राजा अपने संशयको दूर करनेके लिये जिनेश्वर भगवान के दर्शनार्थ जानेको उत्सुक हुआ । अपने संशयके निवारणार्थ वह गया । (११८) उस समय वह प्रदेश मत्त भौरों के चले जानेसे उत्तम कमलोंसे छाया हुआ-सा था, मधुर स्वरके निनादसे वह अत्यन्त रम्य प्रतीत होता था, पवनके संसर्गसे
१. धीरा-प्रत्य। २. अशना-क्षुधा । ३. च-प्रत्य। ४. प्रहरानम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org