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पउमचरियं
[४.४२बलदप्पगबियाणं, उभयबलाणं रसन्ततूराणं । आभिट्टं परमरणं, नचन्तकबन्धपेच्छणय ॥ ४२ ॥ भणिओ य बाहुबलिणा, चक्कहरो किं वहेण लोयस्स? । दोण्हं पि होउ जुझं, दिट्ठीमुट्ठीहि रणमझे ॥ ४३ ॥ एवं च भणियमेत्ते, दिट्ठीजुझं तओ समन्भडियं । भग्गो य चक्खुपसरो, पढम चिय निजिओ भरहो ॥ ४४ ॥ पुणरवि भुयासु लग्गा, एक्कं कढिणदप्पमाहप्पा । चलचलणपीणपेलण-करयलपरिहत्थविच्छोहा ॥ ४५ ॥ अद्धतडिनोत्तबन्धण-अवहत्थुव्वत्तकरणनिम्मविया । जुज्झन्ति सवडहुत्ता, अभग्यमाणा महापुरिसा ॥ ४६ ॥ एवं भरहनरिन्दो, निहओ भुयविक्कमेण संगामे । तो मुयइ चक्करयणं, तस्स वहत्थं परमरुट्टो ॥ ४७ ।। विणिवायणअसमत्थं, गन्तूण मुदरिसणं पडिनियत्तं । भुयबलपरक्कमस्स वि संवेगो तक्खणुप्पन्नो ॥ ४८ ।। बाहुबलिदीक्षा - जंपइ अहो ! अकज, जं जाणन्ता वि विसयलोभिल्ला । पुरिसा कसायवसगा, करेन्ति एक्कक्कमवि रोह ॥ ४९।। छारस्स कए नासन्ति, चन्दणं मोत्तियं च दोरत्थे । तह मणुयभोगमूढा, नरा वि नासन्ति देविढि ॥ ५० ॥ मोत्तु कसायजुज्झं, संजमजुज्झेण जुज्झिमो इण्हि । परिसहभडेहि समयं, जाव ठिओ उत्तमट्टम्मि ॥ ५१ ॥ नमिऊण जिणवरिन्द, लोयं काऊण तत्थ बाहुबली । वोसिरियसबसङ्गो, जाओ समणो समियपावो ॥ ५२ ॥ काऊण सिरपणाम, चकहरो भणइ महुरवयणेहिं । मा गेण्हसु पबज्ज, भुञ्जसु रजं महाभागं ॥ ५३ ॥ संवच्छरपडिमत्थं, बाहुबली पणमिऊण चक्कहरो । सयलबलेण समग्गो, साएयपुरि समणुपत्तो ॥ ५४ ।।
दपसे गर्वित तथा रणवाद्य बजाती हुई दोनों सेनाएँ युद्ध में जूझ गई। नाचते हुए धड़ोंके कारण वह युद्धक्षेत्र दर्शनीय लगता था। (४२)
ऐसी स्थितिमें बाहुबलीने कहा, 'हे चक्रधर! लोगोंके वधसे क्या लाभ है ? इस युद्धभूमिके बीच हम दोनोंका ही दृष्टि एवं मुष्टि द्वारा ही युद्ध हो जाय । (४३) इस प्रकार कहने पर उन दोनोंके बीच दृष्टियुद्ध हुआ। चक्षुका प्रसार (स्थिर दृष्टि, टिकटिकी) प्रथम भन्न होनेपर भरत हार गए । (४४) फिर उन्होंने अत्यन्त दर्पके साथ एक दूसरेपर पैरोंकी तीव्रगतिसे तथा मुकोंको अत्यन्त चतुरताके साथ ऊपर उठाकर हाथापाई की। (४५) वे महापुरुष भागे बिना और एक दूसरेके सम्मुख रहकर युद्ध करने लगे। उस समय ऊपर उठे हुए उनके हाथ एक चक्रमें घूम रहे थे जिससे मानो बिजलीकी आधी बनी हुई जोत हो ऐसा प्रतीत होता था। (४६) इस प्रकारके युद्ध में भी बाहुबलीके विक्रमसे भरत राजा पराजित हुए। इसपर आपेसे बाहर होकर भरतने उसके (बाहुबलीके) वधके लिये चक्ररत्न फेंका । (४७) मारने में असमर्थ वह सुदर्शनचक्र जैसे ही वापस लौटा वैसे ही भुजाओंमें बल एवं पराक्रमवाले बाहुबलीके मनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। (४८) उसने कहा-'अरे, यह कितना आश्चर्य है कि विषयमें क्षुब्ध तथा कषायके वशीभूत होकर पुरुष बिना किसी प्रतिरोधके एक दूसरेका अकाज करते हैं। (४९) जिस प्रकार कोई राखके लिये चन्दनका नाश करे और डोरेके लिये मोतीका नाश करे उसी प्रकार मानव-भोगोंमें मूढ मनुष्य भी देवों की ऋद्धिका नाश करते हैं। (५०) अब मैं कषाय-युद्धका त्याग करके संयमयुद्ध द्वारा परीषह रूपी योद्धाओंके साथ तबतक जूझता रहूँगा जबतक उत्तम स्थान (मोक्ष) पर अवस्थित न होऊँ।' (५१) जिनवरको बन्दन करके बाहुबलीने वहीं लोंच किया। वह सब प्रकारके आसक्तिभावसे विरत होकर पापका शमन करनेवाला मुनि हुआ। (५२)
___मस्तकसे प्रणाम करके चक्रवर्ती भरतने मधुर वाणी में कहा-'तुम प्रव्रज्या मत लो और महाभाग राज्यका उपभोग करो। (५३) एक वर्ष तकके कायोत्सर्ग (ध्यान) की प्रतिज्ञावाले बाहुबलीको प्रणाम करके चक्रवर्ती भरत अपने समग्र सैन्यके साथ साकेतपुरी (अयोध्या नगरी) वापस लौट आया । (५४) महात्मा बाहुबलीने भी अपने
१. प्रवृत्तम् । २. महाभोग• मु. ।
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