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५. रक्खसर्वसाहियारो अह चक्कवालनयरं, सहस्सनयणेण वेढियं सर्व । निष्फिडइ सवडहुत्तो, पुण्णघणो साहणसमग्गो ।। ७५ ॥ संगामम्मि पवत्ते, बहुलोहियकद्दमे परमधोरे । गाढपहारपरद्धो, पुष्णघणो पाविओ निहणं ॥ ७६ ॥ घणवाहणो वि ताहे, वेरियवित्तासिओ पलायन्तो । भयजणियतुरियवेगो, अजियजिणिन्दं गओ सरणं ॥ ७७ ॥ इन्देण पुच्छिओ सो, कीस तुम भयपवेइयसरीरो । तेण वि य तस्स सिटुं, वेरनिमित्तं जहावत्तं ॥ ७८ ॥ अह तस्स मग्गलग्गो, सहस्सनयणो रवि व पज्जलिओ । पेच्छइ तमतिमिरहरं, जिणस्स भामण्डलं दिवं ॥ ७९ ॥ मोत्तण निययगवं, थोऊण जिणं पराएँ भत्तीए । तत्थेव सन्निविट्ठो, नच्चासन्ने समोसरणे ॥ ८० ॥ दोण्ह वि पिऊण चरियं, विज्जाहरपत्थिवाण पुबभवं । पुच्छइ गणहरवसहो, केवलनाणी परिकहेइ ॥ ८१ ॥ पुण्यघनत्रिलोचनयोः पूर्वभवः'अत्थेत्थ भरहवासे, आइच्चपमे पुरे मणभिरामे । चउकोडिधणसमिद्धो, वाणियओ भावणो नामं ॥ ८२ ॥ कित्तिमइ त्ति सुरुवा, महिला पुत्तोय तस्स हरिदासो । धणलोभेण य चलिओ, पोएण य भावणो तइया ॥ ८३ ॥ निययं दब-घरसिरिं, दाऊण सुयस्स विविहउवएसं । तो निग्गओ घराओ, सुहनक्खत्ते करणजुत्ते ॥ ८४ ॥ अह सो जूएण जिओ, हरिदासो चोरियं सुरङ्गाए । काऊण समाढत्तो, रायघरं पत्थिओ तइया ।। ८५ ॥ नत्तं काऊण तओ. संपत्तो भायणो निययगेहं । न य पेच्छइ हरिदासं, पुच्छइ महिलं पयत्तेणं ॥ ८६ ॥ तीए वि तस्स सिट्ठ', हरिदासो चोरियं सुरङ्गाए । दवस्स कारणट्ठा, रायहरं पत्थिओ नवरं ॥ ८७ ॥ सो तस्स मरणभीओ, जाव य सन्तो करेइ एगमणो । ताव च्चिय संपत्तो, हरिदासो अप्पणो गेहं ॥ ८८ ।। परिचिन्तिऊण एत्तो, को वि महं वेरिओ समल्लीणो। आहणइ पावकम्मो, खग्गपहारेण से सीसं ॥ ८९ ।।
इसके पश्चात् सहस्रनयनने सम्पूर्ण चक्रवाल नगरको घेर लिया। सैन्यके साथ पूर्णघन भी सामना करनेके लिये बाहर निकला । (७५) बहुत खून बहनेके कारण कीचड़वाले तथा अत्यन्त घोर संग्राममें गाढ़ प्रहारसे पीड़ित पूर्णघनकी मृत्यु हुई। (७६) तब शत्रुओंके द्वारा डराकर भगाया हुआ मेघवाहन भी भयके कारण जल्दी-जल्दी भागता हुआ श्रीअजितजिनेन्द्रकी शरणमें आया । (५७) वहाँ इन्द्रने पूछा कि तुम्हारे शरीरमें इतना अधिक भय क्यों प्रविष्ट हुआ है ? उसने भी जैसा हुआ था वैसा ही बैरका कारण कह सुनाया । (७८) उसकी खोज में तत्पर और सूर्यकी भाँति प्रज्वलित सहस्रनयनने भी अन्धकारको दूर करनेवाला भगवानका दिव्य मण्डल देखा । (७९) अपने गर्वका त्याग करके तथा जिनेश्वरकी परम भक्तिपूर्वक स्तुति करके वह समवसरणमें भगवान्के समीप जा बैठा । (८०)
गणधरश्रेष्ठने दोनोंके पिताओंके चरित एवं विद्याधर राजाओंके पूर्वभवके बारेमें पूछा। केवलज्ञानीने उसका उत्तर देते हुए कहा कि-'इस भरतक्षेत्र में आए हुए सुन्दर आदित्यप्रभ नामक नगरमें चार करोड़ दीनारोंसे समृद्ध भावन नामका बनिया रहता था । (८१-८२) उसकी सुन्दर पत्नीका नाम कीर्तिमती तथा पुत्रका नाम हरिदास था। धनके लोभसे वह भावन एक बार जहाज लेकर समुद्रयात्राके लिए निकल पड़ा। (८३) अपना द्रव्य, घर तथा वैभव पुत्रको सौंपकर तथा अनेक प्रकारका उपदेश देकर वह शुभ करणसे युक्त शुभ नक्षत्र में घरसे निकला । (८४) इधर हरिदास जूएमें सब हार गया, अतः चोरी करनेके लिए सुरंग मार्गसे राजाके घरकी ओर उसने प्रस्थान किया । (८५) इधर यात्रा करके भावन भी अपने घरपर लौट आया। वहाँपर हरिदासको न देखकर उसने अपनी पत्नीसे पूछा । (८६) उसने भी उसे कहा कि द्रव्यकी प्राप्तिके लिये चोरी करनेके उद्देश्यसे हरिदास सुरंगके रास्तेसे राजाके घरकी ओर गया है। (८७) वह अपने पुत्रके मरणसे भयभीत होकर एकाग्र भावसे शान्ति-कर्म (प्रार्थना आदि) करता है तबतक तो हरिदास अपने घर लौट आया । (८८) 'यहाँ पर मेरा कोई दुश्मन आया है'-ऐसा सोचकर उस पापीने तलवारके प्रहारसे अपने पिताका मस्तक काट डाला । (८९)
१. निर्गच्छति अभिमुखम् । २. रिऊण-प्रत्य । ३. अस्थित्थ-प्रत्य०। ४. जत्ता काऊण-मु.।
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