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पउमचरियं
सेणाणि वि ताहे, घेत्तृण निसरं सुरवइस्स । उवणेइ करयलत्थं, मायाबालं ठविय पासे ॥ ७६ ॥ काऊण सिरपणामं, घेत्तृण जिणं ससंभमो सको । पुंलयन्तो य न तिप्पड़, अच्छीण सहरसमेत्तेणं ॥ ७७ ॥ तो सबसमुदणं, देवा वच्चन्ति मन्दराभिमुहा । गयगं समोत्थरन्ता, आभरणसमुज्जलियसिरिया || ७८ ॥ मेरु पर्वतेऽभिषेक:
दिट्टो य नगवरिन्दो, फलहसिलाविविहरयणपव्भारो । सललियलयाविलोलिय - पलम्बलम्बन्त वणमालो ॥ ७९ ॥ सिंहरकरनिवहनिम्गय- विविहमहामणिमऊहपज्ज लिओ । दलहइरविमलकोमल - पवशुद्धयपलवकरग्गो ॥ ८० ॥ वर तरुणतरुवरुग्गय- कुसुमयन्धमहुरीगीओ । लुहुलवहन्तनिम्मल - उम्गालिवहन्त जलनिवहो ॥ ८१ ॥ हरि-उल- बसह - केसरि-वराह-रुरु- चमरसावयसमिद्धो । विगयभयजजियमगहर - सच्छन्दरमन्तघगवन्दो ॥ ८२ ॥ गरुड-वर किन्नरोरग-किंपुरिससमूह चड्डियपएसो । तियसबहुमहुर मम्मण- गन्धबुभ्गीयसवदिसो || ८३ || एयारिसगुणकलिओ, मेरू तस्युत्तमे महासिहरे । अह ते महाणुभावा, ओइण्णा सुरवरा सबे ॥ दिट्ठा य पण्डुकम्बल – सिला समुज्जलमणीसु पज्जलिया । चन्द्रपहर्सन्नियासा, उसासन्ती दस दिसाओ ॥ सीहासणे निणिन्दो, ठविओ सकेण हतुट्टेणं । अभिसेयं च महरिहं, काऊ सुरा समादत्ता ॥ ८६ ॥ पडुपडह-मेरि-झल्लरि-आइङ्ग-मुइङ्ग सङ्घ-पणवागं । जम्माभिसेय तूरं, समाहयं मेहनिग्वोसं ॥ ८७ ॥ गन्धब-जक्ख- किन्नर-तुम्बुरुय - महोरगा अणेगविहा । वरकुसुम-चन्द्रगा- ऽगुरु-दिबंमुय - चामरविहत्था ॥ ८८ ॥
८४ ॥
८५ ॥
सेनापति एक कृत्रिम बालकको माताके पास रखकर और अपने करतलों में जिनेश्वरको उठाकर इन्द्रके पास लाया । ( ७६ सिरसे प्रणाम करके तथा अत्यन्त आदर के साथ जिनेश्वरको लेकर इन्द्र पुलकित हो उठा। उन्हें देखकर अपने सहस्र नेत्रोंसे भी उसे तृप्ति नहीं होती थी । ( ७७) आभरणोंकी प्रभासे उज्ज्वल कान्तिवाले वे सब देव अपने समुदायसे आकाशको आच्छादित करते हुए मन्दराचल पर्वतकी ओर चले । ( ७८ ) मन्दराचल पर्वतका वर्णन और भगवान्का जन्माभिषेक -
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उन्होंने पर्वतों में श्रेष्ठ मन्दराचलको देखा। वह स्फटिककी शिलाओं तथा अनेक प्रकारके रत्नों का समूह-सा लगता था । सुन्दर लताओंके हिलनेसे चंचल बनमाला उसमें फैली हुई थीं । शिखर पर छाए हुए बरफ़ के समूहमेंसे बाहर निकली हुई अनेक प्रकारकी बड़ी बड़ी मणियोंकी किरणोंसे वह देदीप्यमान हो रहा था। उसमें कमलदलके साथ संसर्ग में आनेके कारण रुचिर, निर्मल एवं मृदु ऐसे पवनके द्वारा पल्लवोंके अग्रभाग प्रकम्पित हो रहे थे । उत्तम तरुण वृक्षोंके ऊपर खिले हुए फूलोंकी समृद्ध सुगन्धका भौरे गुणगान कर रहे थे । 'घुलहुल' शब्द करते हुए तथा निर्मल पानी से भरे हुए झरने बह रहे थे । वह बन्दर, न्योले, बैल, सिंह, सूअर, हिरन, चमरीगाय आदि जानवरोंसे भरा पूरा था । भयके चले जानेसे मनोहारी और स्वच्छन्द क्रीडामें उनके घनसमूह लगे हुए थे । उस पर गरुड़, किन्नर, नाग एवं किंपुरुषोंके समूह चढ़ते थे। उसकी सभी दिशाएँ गन्धर्वोके गान और देववधुओंकी मधुर मर्मर ध्वनिसे व्याप्त थीं। (७९-८३)
मेरु पर्वत इस तरह के गुणोंसे युक्त था । उसके एक उत्तम महाशिखरके ऊपर उच्च भाशयवाले वे सभी देव श्रवतीर्ण हुए। ( ४ ) उस पर उन्होंने 'पाण्डुकम्बल' नामकी एक शिला देखो। वह मणियोंके कारण अत्यन्त देदीप्यमान थी और चन्द्रकान्तमणिकी भाँति दसों दिशाओंको वह प्रकाशित कर रही थी । (८५) प्रसन्न एवं तुष्ट इन्द्रने जिनेन्द्रको सिंहासनके ऊपर स्थापित किया और देव दबदबेके साथ अभिषेक करनेके लिये प्रवृत्त हुए। (८६) डंका, भेरि, झांझ, आइंग ( वाद्य विशेष ), मृदंग, शंख और ढोल जैसे वाद्योंकी जन्माभिषेकके समय जो ध्वनि उठी उसने बादलकी आवाजको भी ढँक दिया। (८७) गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, तुम्बुरु, महोरग आदि अनेकविध देव वहाँ उपस्थित थे । उनमें से कई हर्षोन्मत्त होकर उत्तम पुष्प, चन्दन, अगुरु, दिव्यवस्त्र तथा चामर हाथमें धारण करके नाचने लगे, दूसरे मधुर शब्दसे गाने लगे तो १. पश्यन् । २. सनिभा सा प्रत्य० ।
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