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३. विज्जाहरलोगवण्णणं वाणिज्ज-करिसणाई. गोरक्खण-पालणेसु उज्जत्ता । ते होन्ति वइसनामा, वावारपरायणा धीरा ॥ ११६ ॥ जे नीयकम्मनिरया. परपेसणकारया निययकालं । ते होन्ति सुद्दवम्गा, बहुभेया चेव लोगम्मि ॥ ११७ ॥ जेण य जुगं निविटुं, पुहईए सयलसत्तमुहजणणं । तेण उ नगम्मि धुर्ट, तं कालं कयजुगं नाम ॥ ११८ ॥ भज्जा सुमङ्गला जिण-वरस्स नन्दा तओ भवे बीया । भरहाइकुमारागं, पुत्तसयं तस्स उप्पन्नं ॥ ११९ ॥ दोण्णि य वरधूयाओ, जोबण-लायण्ण-कन्ति-कलियाओ। बम्भी वि सुन्दरी विय, जणम्मि विक्खायकित्तीओ ॥१२॥ सामन्त-भड-पुरोहिय-सेणावइ-सेठ्ठि-भोइयाणं च । दावेइ रायनीई, लोगस्स वि लोगसंबन्धं ॥ १२१ ।। एव रायवरसिरिं. भुञ्जन्तस्स उ अइच्छिओ कालो । नीलं वासं दटुं, संवेगपरायणो जाओ ॥ १२२ ॥ कट्ठ अहो! विलम्बइ, लोओ परपेसणेसु आसत्तो । उम्मत्तओ ब नच्चइ, कुणइ य बहुचेट्टियसयाई ॥ १२३ ॥ मणुयत्तणं असारं, विजुलयाचञ्चलं हवइ जीयं । बहुरोग-सोगकिमिकुल-भायणभूयं हवइ देहं ॥ १२४ ॥ दुक्खं सुहं ति मन्नइ, जोवो विसयामिसेसु अणुरत्तो । पुणरवि बहुं विनडिउं, न मुणइ आउं परिगलन्तं ॥ १२५ ॥ एयं चिय विसयसुहं, असासयं उज्झिऊण निस्सङ्गो । सिद्धिसुहकारणत्थं, करेमि तव-संजमुज्जोयं ॥ १२६ ॥ जाव य चिन्तेइ इम, संसारोच्छेयकारणं उसभो । ताव य भिसन्तमउडा, देवा लोगन्तिया पत्ता ॥ ११७ ॥ काऊण सिरपणाम, भणन्ति साहु त्ति नाह ! पडिबुद्धो। वोच्छिन्नस्स मुबहुओ, कालो इह सिद्धिमग्गस्स ॥ १२८ ॥
मनुष्योंको उन्होंने रक्षाकायेमें नियुक्त किया था वे क्षत्रियके नामसे पृथ्वीमें विख्यात हुए। (११५) व्यापार, खेती, गोरक्षण एवं गोपालनमें जो व्यवसायपरायण तथा धीर पुरुष नियुक्त हुए थे वे वैश्य कहलाए । (११६) जो नीच कायमें निरत रहते थे, सर्वदा दूसरोंकी सेवा करते थे उनका शूद्रवर्गमें समावेश हुआ। उनके अनेक भेद हैं। (११७) चूंकि पृथिवी पर सभी जीवोंको सुख देनेवाला युग प्रस्थापित हुआ इसलिये वह युग विश्वमें कृतयुगके नामसे विख्यात हुआ। (११८)
जिनवर ऋषभको एक भाया सुमंगला तथा दूसरी नन्दा थी और भरत आदि सौ पुत्र थे। (११९) उनकी यौवन लावण्य एवं कान्तिसे युक्त ब्राह्मी तथा सुन्दरी नामकी दो कन्याएँ थीं। उनकी कीर्ति लोगोंमें प्रसिद्ध थी। (२०) उन्होंने सामन्त, भट, पुरोहित, सेठ तथा गाँवके मुखियों को राजनीति सिखलाई और लोगोंको परस्परका सम्बन्ध कैसा रखना चाहिए यह भी सिखलाया । (१२१) संसारसे वैराग्य और दीक्षाग्रहण
इस प्रकार उत्तम राज्यश्रीका उपभोग करते हुए कुछ समय व्यतीत हुआ। एक दिन नीलांजना नामकी अप्सराको देखकर उन्हें वैराग्य हुआ कि-'अहो ! दूसरोंके सेवाकार्यमें आसक्त लोग कितना कष्ट उठाते हैं। वे पागलोंकी भाँति नाचते हैं और सैकड़ों दूसरी-दुसरो चेष्टाएँ करते हैं । (१२२-२३) मानवजीवन असार है, बिजलीकी भाँति जीवन क्षणिक है। यह देह भी अनेक प्रकारके रोग, शोक तथा कृमिका भाजनरूप होता है। (१२४) विषय रूपी मांसमें अनुरक्त जीव दाखको भी सुख समझता है और अनेक प्रकारसे दुःख सहने पर भी यह नहीं जानता कि आयु प्रतिक्षण क्षीण हो रही है। (१.५) ऐसे अशाश्वत विषय-सुखका त्याग कर मैं निःसंग होऊँ और मोक्षसुखकी प्राप्तिके लिये तप एवं संयममें प्रयत्नशील बनूँ। (१०६)
इस तरह संसारके उच्छेदके कारणका भ. ऋषभदेव विचार कर ही रहे थे कि उज्ज्वल मुकुटवाले लोकान्तिक देव वहाँ उपस्थित हुए। (१७) सिग्से प्रणाम करके वे कहने लगे कि 'हे नाथ! आप प्रतिबुद्ध हुए यह अच्छा ही हुआ। इस क्षेत्र में मोक्षमार्गका विनाश होनेके पश्चात् बहुत काल बीत चुका है। (१२८) घोर भवसागरमें ये जीव बार-बार
१. दर्शयति ।
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