________________
१६
पउमचरियं
[२. ९३दसण-नाण-चरित्ते, सुद्धा अन्नोन्नकरणजोएसु । देहे वि निरवयक्खा, सिद्धि पावेन्ति धुयकम्मा ॥ ९३ ॥ तं अक्खयं अणन्तं, अबाबाहं सिवं परमसोक्खं । पावन्ति समणसीहा, कम्मट्ठविवज्जिया मोक्खं ॥ ९४ ॥ चउगइमहासमुद्दे, जीवा घोलन्ति कम्मपडिबद्धा। न य उत्तरेज केई, मोत निणधम्मबोहित्थं ॥ ९५ ॥ संसारमहागिम्हे, दुक्खायवतिववेयणुम्हवियं । निणवयणमेहसीयल-उल्हवियं सयलजियलोयं ।। ९६ ॥ श्रेणिकस्य पद्मचरिते संशयः अह ते सुणित्त धर्म, जिणवरमुहकमलनिग्गयं देवा । सम्मत्तलद्धबुद्धी, गया य निययाइँ ठाणाई ।। ९७ ।। मगहाहिवो वि राया, वीरजिणं पणमिऊण भावेणं । सवपरिवारसहिओ, कुसग्गनयरं समणुपत्तो ॥ ९८ ॥ ताव य दिवसवसाणे, अत्थं चिय दिणयरो समल्लीणो । मउलन्ति य कमलाइं, विरहो चक्कायमिहुणाणं ॥ ५९ ॥ उच्छरइ तमो गयणे, मइलन्तो दिसिवहे कसिणवण्णो। सज्जणचरिउज्जोयं, नज दुज्जणसहावो ।। १०० ॥ राया वि निययभवणे, मणिदीवनलन्तकिरणविच्छुरिए । सयणे सुहप्पसुत्तो, कुसुमपडोच्छइयपल्लङ्के ॥ १०१ ॥ निदं सेवन्तो चिय, सुविणे वि पुणो पुणो जिणवरिन्दं । पेच्छइ पुच्छइ य तओ, संसय परमं पयत्तेणं ॥१०२॥
घणगुरुगभीरगज्जिय-निणायबहुतूरबन्दिसदेणं । अह उट्टिओ महप्पा, थुवन्तो मङ्गलसएहि ॥ १०३ ॥ करण एवं योगमें शुद्ध होते हैं और जो देहमें भी अनासक्त होते हैं वे अपने कर्मोका नाश करके मुक्ति प्राप्त करते हैं । (९३) जो ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकारके कर्मसे रहित होते हैं वे श्रमणोंमें सिंह जैसे पराक्रमी हो उस अक्षय, अनन्त, अव्याबाध, शिव, और परमसुखमय मोक्ष प्राप्त करते हैं। (९४) चार गति रूपी महासमुद्रमें कर्मसे जकड़े हुए जीव इधर-उधर टकराया करते हैं। जिनधर्मरूपी नौकाके सिवाय कोई इस समुद्रसे पार उन्हें नहीं उतार सकता । (९५) संसाररूपी अति भीषण ग्रीष्मकालमें दुःखरूपी गरमोसे तीव्र वेदनाका अनुभव करनेवाला समग्र जीवलोक जिनवचनरूपी मेघके शीतल जलसे शान्तिका अनुभव करता है। (९६)
इस प्रकार जिनवर श्रीमहावीरके मुखकमलसे निकले हुए धर्मके उपदेशको सुनकर बुद्धिमें सम्यक्त्व धारण करके वहाँपर आए हुए देव अपने-अपने स्थानपर चले गए। (९७) मगधाधिप राजा श्रेणिक भी भावपूर्वक वीर जिनेन्द्रको वन्दन करके अपने सारे परिवारके साथ कुशाग्रपुर (राजगृह ) में लौट आया। (९८)
दिवसका अवसान होनेपर सूर्य अस्त हो गया, कमल म्लान हो गए और चक्रवाकका जोड़ा वियुक्त हो गया। (९९) दिक्पथोंको अपने कृष्णवर्णसे मलिन करता हुआ अंधकार आकाशमें फैल गया। इससे सज्जनोंके चरित्रका प्रकाश तथा दुर्जनोंका स्वभाव कैसा होता है यह जाना जाता है। (१००) राजा भी जलते हुए मणिमय दीपकोंको किरणोंसे प्रकाशित अपने भवनमें गया और पुष्पोंकी चादरसे आच्छादित पलंगमें जाकर सो गया ।। (१०१) यद्यपि वह सो गया था, फिर भी वह स्वनमें भगवानको बार-बार देखता था और अत्यन्त प्रयत्नके साथ वह उनसे प्रश्न पूछता था। (१०२) प्रातःकाल होने पर बादलके समान अतिगम्भीर गर्जना करनेवाले अनेक प्रकारके वाद्य तथा बन्दीजनोंके संगीतसे वह महात्मा ( राजा श्रेणिक) उठा और मंगल शब्दोंसे स्तुति करने लगा। (१०३)
१. जोएण-प्रत्य० । २. तिक्खेवेयणु-प्रत्य० । ३. ज्ञायते । ४. पटावस्तृत । ५. व्रत (५), श्रमणधर्म (१०), संयम (१७), वैयाकृत्य (१०), ब्रह्मगुप्ति (९), ज्ञानादि (३), तप (१२) और क्रोधादि कषायका निग्रह (४)-इन ७. मूल गुणों ( चरणसित्तरी) की सुरक्षा एवं पोषणके लिये जो दूसरे ७. त्यागीके नियम या उत्तर गुण कहे हैं उन्हें करणसित्तरि कहते हैं। वे ७. करण या उत्तर-गुण इस प्रकार है। पिण्डविशुद्धि (४), समिति (५), भावना (१२), प्रतिमा (१२), इन्द्रिय निरोध (५), प्रतिलेखना (२५), गुप्ति (३) और द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप अभिग्रह (४)। यहाँपर करणसे अभिप्रेत ये ही ७. उत्तर-गुण हैं। ६. मन-वचनकायको प्रवृत्तिको योग कहते हैं, और इन त्रिविध योगके निरोधको जैन परिभाषामें संवर कहते हैं। योगशास्त्र में निरूपित चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग जैनपरिभाषाके अनुसार 'संवर' है। ७. देवगति, मनुष्यगति, तियचगति और नरकगति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -