________________
३. ४८]
३. विजाहरलोगवण्णणं तुडियङ्ग१भोयणङ्गा२, विहसणङ्गा३ मयङ्ग४वत्थङ्गा५। गिहनोइ७दीवियङ्गा८ भायण९मल्लङ्ग१०कप्पदुमा ॥३७॥ एएहि मणभिराम, जहिच्छियं दसविहं महाभोगं । भुञ्जन्ति निच्चसुहिया, गयं पि कालं न याणन्ति ॥ ३८ ॥ आउम्मि थोवसेसे, मिहुणं जणिऊण पवरलायणं । कालं काऊण तओ, सुरवरसोक्खं पुण लभन्ति ॥ ३९ ॥ सीहादओ वि सोमा, न वि ते कुप्पन्ति एकमेकस्स । सच्छन्दसुहविहारी, ते वि हु भुञ्जन्ति सोक्खाई ॥ ४० ॥ भरहेरवण्सु तहा, हाणी वुड्डी य हवइ कालस्स । न य हाणी न य वुड्डी, सेसेमु य होइ खेत्तेसु ॥ ४१ ॥ एयं सुणिउं राया पुच्छइ साहु पुणो पणमिऊणं । केण कएण मणूसो, उप्पज्जइ भोगभूमीसु ॥ ४२ ॥ . तो भणइ गणहरिन्दो, जे एत्थं उज्जया नरा भद्दा । ते भोगभूमिमग्गं, लहन्ति साहुप्पयाणेणं ॥ ४३ ॥ दानफलम्जे कुच्छिएसु दाणं, देन्ति मुहभोगकारणनिमित्तं । ते कुञ्जराइ जाया, भुञ्जन्तिह दाणज सोक्खं ॥ ४४ ॥ जह खेत्तम्मि सुकिट्टे, बीयं वडइ न तस्स परिहाणी। एवं सुसाहुदाणे, विउलं पुण्णं समज्जिणइ ॥ ४५ ॥ एक्कम्मि जह तलाए, घेणुएँ सप्पेण पाणिय पीयं । सप्पे परिणमइ विसं, घेणुसु खीरं समुब्भवइ ॥ ४६॥ तह निस्सील सुसीले, दिन्नं दाणं फलं अफलयं च । होही परम्मि लोए, पत्तविसेसेण से पुण्णं ॥ ४७ ॥ कुलकरा ऋषभस्वामिचरितं च
एवं दाणविसेसो, नरवइ ! कहिओ मए समासेणं । कुलगरवंसुप्पत्ती, भणामि एत्तो निसामेहि ॥ ४८ ॥ देनेवाला), मदांग (मदिरा प्रदान करनेवाला), वस्त्रांग (वस्त्र प्रदान करनेवाला), गृहांग (घर देनेवाला), ज्योतिरंग (सूर्य अथवा अग्निकी भाँति उज्ज्वल प्रकाश फैलानेवाला), दीपांग (दीपशिखाकी भाँति प्रकाश फैलानेवाला), भाजनांग (पात्र प्रदान करनेवाला) और माल्यांग (पुष्पमाला प्रदान करनेवाला)-इन कल्पवृक्षोंके कारण लोग दस प्रकारके अत्यन्त रमणीय महाभोगोंका उपभोग करते थे, और सर्वदा सुखमें लीन रहनेसे काल कैसे बीतता है इसका भी ज्ञान उन्हें नहीं रहता था। (३८) थोड़ी आयु शेष रहनेपर वे एक उत्तम लावण्यमय युगलको जन्म देकर मर जाते थे। मरकर वे देवताओंका उत्तम सुख प्राप्त करते थे। (३९) उस समय सिंह आदि हिंस्र समझे जानेवाले पशु भी सौम्य प्रकृतिके थे। वे एक दूसरेपर क्रोध नहीं करते थे और इच्छानुसार सुखपूर्वक विचरण करते हुए सुखका उपभोग करते थे। (४०) इस प्रकार भरत एवं ऐरावत इन दो क्षेत्रों में कालकी हानि-वृद्धि होती रहती है, किन्तु इतर क्षेत्रोंमें न तो हानि ही होती है और न वृद्धि। (४१) दानफल
ऐसा सुनकर राजाने प्रणाम करके पुनः साधु श्री गौतमस्वामीसे पूछा कि-'कैसा आचरण करनेसे मनुष्य भोगभूमियों में उत्पन्न होता है ? (४२) गणधरों में इन्द्रतुल्य श्री गौतमस्वामी इसका उत्तर देते हैं कि-'जो यहाँपर ऋजु प्रकृतिके एवं भद्र जन होते हैं वे साधुओंको दान देनेसे भोगभूमिके मार्गका अवलम्बन करते हैं । (४३) जो दूसरे जन्ममें आनन्द एवं सुख प्राप्त हो इस दृष्टिसे कुत्सित जनोंको दान देते हैं वे हाथी रूपसे उत्पन्न होते हैं और दानजन्य मुख अनुभव करते हैं। (४४) जिस तरह अच्छी तरहसे जोते गए खेतमें बीज बढ़ता है और उसका विनाश नहीं होता उसी तरह सुसाधुको दिए गए दानसे विपुल पुण्य प्राप्त होता है। (४५) जिस प्रकार एक ही तानाबमेंसे गाय तथा सर्प द्वारा पानी पीने पर भी सर्पमें वह विषरूप परिणत होता है और गायमें दूध रूपसे उत्पन्न होता है उसी प्रकार पात्रकी योग्यताके अनुसार शीलरहितको दिया गया दान परलोकमें पूर्णतः निष्फल एवं सुशोलको दिया गया दान परलोकमें पूर्णतः सफल होता है । ( ४६-७) कुलकर वंशकी उत्पत्ति तथा ऋषभचरित
राजेन्द्र ! इस प्रकार मैंने दानका माहात्म्य संक्षेपसे कहा। अब मैं कुलकर वंशकी उत्पत्तिके बारेमें कहता हूँ। इसे तुम सुनो । (४८)
१. जत्थ साहया-प्रत्य० । २. परमलायण्णं-मु० । ३. भुजंति गयाण जं-मु०। ४. समज्जेइ-मु.।
रहताका उत्तम सुख प्राप्त और इच्छानुसार सुखा रहता है, किन्तु इतः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org