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पउमचरियं
[२.४४संसारभवसमुद्दे, सोगमहासलिलवीइसंघट्टे । पोओ तुमं महायस!, उत्तारो भवियवणियाणं ॥ ४४ ॥ संसारभवकडिल्ले, संजोगविओगसोगतरुगहणे । कुषहपणट्टाण तुम, सत्थाहो नाह ! उप्पन्नो ॥ ४५ ॥ तुह नाह ! को समत्थो, सब्भूयगुणाण कुणइ परिसंखा ? । सुइरम्मि भण्णमाणो, अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥४६॥ थोऊण देवराया, अन्ने वि चउबिहा सुरनिकाया। भावेण कयपणामा, उवविठ्ठा सन्निवेसेसु ॥ १७ ॥ मगहाहिवो वि राया, दतॄण सुरागमं जिणसगासे । भडचडयरेण महया, तो रायपुराओ नीहरिओ ॥ ४८ ॥ पत्तो य तमुद्देसं, मत्तमहागयवराओ उत्तिण्णो। थोऊण जिणवरिन्द, उवविट्टो मगहसामन्तो ॥ ४९ ॥
समवसरणम्पुवविणिम्मियभागं, जोयणपरिवेढमण्डलाभोयं । पायारतिउणमणिमय-गोउरवित्थिण्णकयसोहं ॥ ५० ॥ अह दोणि य वक्खारा, अट्टमहापाडिहेरसंजुत्ता। अट्ट नाडयाई, दारे दारे य नच्चन्ति ॥ ५१ ॥ सोलस वरवावीओ, कमलुप्पलविमलसलिलपुण्णाओ। चउमु विदिसासु मज्झे, हवन्ति चत्तारि चत्तारि ॥ ५२ ॥ भयवं पि तिहुयणगुरू, विचित्तसीहासणे सुहनिविट्ठो। छत्ताइछत्त-चामर-असोग-भामण्डलसणाहो ॥ ५३ ॥ एवंविहम्मि तत्तो, सुरवरमेलीणजणसमूहम्मि । पत्तेयं पत्तेयं, वक्वारं कित्तइस्सामि ॥ ५४ ॥
अकेले आपने ही इसे निर्मल प्रकाशसे प्रकाशित किया है। (४३) संसाररूपी समुद्र में शोकरूपी बड़ी-बड़ी लहरें टकरा रही हैं। हे महायश! भव्यजनरूपी व्यापारियोंको नौकाके समान आप ही पार उतारनेवाले हैं। (४४) हे नाथ ! संयोग, वियोग एवं शोकरूपी तरुओंसे व्याप्त जन्म-मरणरूपी संसारके गहन वनके कुमार्गमें नष्ट होनेवाले जन्तुओंके लिए
आप ही सार्थवाह तुल्य उत्पन्न हुए हैं। (४५) बहुत देर तक-सहस्रकोटि वर्षों तक भी आपके वास्तविक गुणोंका यदि कोई संकीर्तन करे तो भी उनकी गिनती करने में, हे नाथ ! कौन समर्थ हो सकता है ? (४६)
इस प्रकार स्तुति करनेके पश्चात् देवेन्द्र तथा दूसरे भी चारों निकायोंके' देव भावपूर्वक प्रणाम करके अपने-अपने योग्य स्थानों में जा बैठे। (४७) मगधाधिप राजा श्रेणिक भी जिनेश्वर भगवानके पास देवताओंका आगमन देखकर प्रभारी सभटसमहके साथ राजपुरसे निकला। (४८) जिस स्थान में भगवान् ठहरे हुए थे उस स्थान पर आकर वह मगधनरेश मदोन्मत्त गजराज परसे नीचे उतरा और जिनवरकी स्तुति करके नीचे बैठा। (४९)
समवसरणका वर्णन
वह स्थान एक योजन जितने विशाल गोलाकार प्रदेशमें फैला हुआ था और उसके पहले हीसे तीन भाग किये गये और उसके तीन प्राकार थे तथा मणिमय विशाल गोपुरों (दरवाजों) से वह शोभित हो रहा था। (५०) दो वक्षस्कार (ब) थे और वे आठ महाप्रातिहार्योंसे युक्त थे। उसके प्रत्येक दरवाजे पर आठ-आठ नाटक खेले जा रहे
(५) कमल एवं उत्पलसे युक्त निर्मल पानीसे भरी हुई सोलह उत्तम बावड़ियाँ चारों विदिशाओं में चार-चारके हिसाबसे थीं। (५२) त्रिभुवनगुरु भगवान् महावोर भी एक अद्भुत सिंहासनके ऊपर सुखपूर्वक बैठे थे। छत्रके ऊपर छत्र, चामर, अशोकवृक्ष और भामण्डलसे वे युक्त थे। (५३)
अब मैं देव एवं मानवसमूहसे व्याप्त प्रत्येक वक्षस्कार (खण्ड या विभाग) का वर्णन करूँगा
(५४)
१. संसारो-मु०। २. अह-प्रत्यन्तरेषु । ३. स्वस्थानेषु। ४. देवोंके चार निकाय ( जातिया) । १. भवनपति. २. व्यन्तर, ३. ज्योतिष्क, और वैमानिक । देव विषयक जैन मन्तव्य जाननेके लिए देखो तत्त्वार्थसूत्रका चौथा अध्याय ।
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