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मनीस्तो कि [२] जयमंगल शब्द, जयतूर्यके घोष और परितोषके साथ जब पट्ट बाँध दिया गया तो दशरथके चरणयुगलका जयकार कर, उत्तराधिकारके मत्सरको अपने मनसे निकालकर, सम्पत्ति ऋद्धि और वृद्धि की अवहेलना कर, पिताके सत्यको मानकर चलदेव ( राम ) जैसे बलका अपहरण कर चल दिये । लक्ष्मण भी अपने लक्षणों को लेकर चल दिये। उनके प्रस्थान करनेपर दशरथ खिन्न होकर अपना मुँह नीचा करके रह गये, जैसे हृदय त्रिशूलसे भिद गया हो। पिताने कहा, "मैंने रामको बनवास क्यों भेज दिया, मुझे धिक्कार हो ? मैंने महान फुल्टक्रमका उल्लंघन किया? अथवा यदि मैं सत्यका पालन नहीं करता, तो मैं अपने नाम और गोत्रको कलंकित करता । अच्छा हुआ राम गये, सत्यका नाश नहीं हुआ। सत्य सबकी तुलनामें महान है ? सत्यसे सूर्य आकाश में तपता है ? सत्यसे ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता? सत्यसे हवा बहती है। धरती पकती है। सत्यसे औषधि क्षयको प्राप्त नहीं होती। अपने मुँह दाढ़ी रखता हुआ भी जो सत्यका पालन नहीं करता, वह राजा वसुको तरह झूठ बोलता हुआ नरकरूपी समुद्रमें गिरता है ॥१-९|
[३] अबतक नराधिप ( दशरथ ) चिन्तातुर थे, तबतक राम अपने भवन में पहुँचे। मौने रामको उद्विग्न चित्त आते हुए देखा। फिर भी उसने हँसते हुए प्रिय वाणी में उससे कहा, "तुम दिन-दिन घोड़ों और हाथियोंपर चढ़ते हो, आज पैरोंसे आना कैसे ? दिन-दिन बन्दीसमूह के द्वारा तुम्हारी स्तुति की जाती थी, आज स्तुति किये जाते हुए क्यों नहीं सुनाई देते ! दिन-दिन तुमपर हजार चमर दोरे जाते थे लेकिन आज तुम्हारे पास कोई नहीं हैं ? दिन-दिन तुम लोगोंके द्वारा राणा कहे जाते थे, आज तुम खिन्न क्यों हो?" यह सुनकर बलदेव