________________
देतीसमो संक्षि
११३ [१०] बहुत समय के बाद, रत्मरथ और विचित्ररथ धामी सपकर, पथपर परिभ्रमण कर और मरकर अन्नकण स्वर्ण जन धन और प्रजासे प्रचुर सिद्धार्थपुरमें उत्पन्न हुए, एक दूसरेके लिए शुभंकर अग्रमहिषी विमला और क्षेमकरसे । कुलभूषण पहला पुत्र था और बड़ा था। एक और छोटा देशभूषण पुत्र हुआ। उसके एक और कन्या उत्पन्न हुई-कमलोत्सवा नामकी सुन्दर चन्द्रमुखी। दोनों कुमार शाला ले जाये गये
और किसी आचार्यको सौंप दिये गये। पढ़ते हुए वे योपनको प्राप्त हो गये, मानो दैवने दो कामदेवोंको गढ़ दिया हो। विशाल वक्षःस्थल और प्रलम्ब बाहु वे ऐसे लगते थे मानो स्वर्गसे इन्द्र और प्रतीन्द्र ध्युत हुए हों। इतने में कमलोत्सवा कहींसे उन्हें दिखाई पड़ गयी मानो कामदेवकी मल्लिका ही, शीघ्र उनके हृदयपर गिरी हो ।।१-२||
[११] अपनी बहनका रूप देखनेका जिनका मन है, ऐसे कुलभूषण और देशभूषणको चन्दन लेपकी छवि अच्छी नहीं लगती थी, और न ही धवल अमल कोमल कमला न जल ही, और न जलाई दक्षिण पवन । यताओ कामदेवके द्वारा कौन नहीं प्रबंचित किया गया। उसके सुकोमल पद देखकर कान्तिसे लाल कमल उसे अच्छे नहीं लगते। रसके गोल-गोल स्तन देखकर हाथीके कुम्भस्थलं जूठन मालूम होते थे । स बालाका मुख देखकर चन्दन और चाँदनी अच्छी नहीं लगती। उसके रूपमें गड़े हुए नेत्र कीचड़में फैले हुए. ढोरके समान थे। उसके केशकलापको देखकर वनमें नाचते हुए मोर. अक्छे नहीं लगते। उसकी दृष्टिका विष बालसर्पका अनुकरण करता है। जो कोई उसे देख लेता है. वह मरने लगता है ॥१.२।