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एगुणचालीसमो संधि
१०५ भूत हैं और भव्यजनों के लिए मृत्युके समय अत्यन्त सहायक हैं। जिनको अंगीकार करनेसे मति दृढ़ होती है, जिनको ग्रहण करनेसे परलोक गति मिलती है, जिनको प्रहण करनेसे सुख सम्भव होता है, जिनको ग्रहण करनेसे दुश्वकी निर्जरा होती है, ऐसे मूलगुण, जिन्होंने निशाचर समूहका नाश किया है, ऐसे रामने उस पक्षीको दिये (और कहा). तुम परम सुखावह अनरण और अनन्तवीर्यके पथपर जाना। समस्त आदरके साथ उन वचनोंको सुनकर उस पक्षिराजने शीघ्र अपने प्राणोंको छोड़ दिया।" जब जटायु भर गया और सीत। अपहृत कर ली गयी तो राम अपने दोनों हाथ ऊपर कर धाड़ मारकर रोने लगे। मैं कहाँ ? लक्ष्मण कहाँ ? गृहिणी कहाँ, घर कहाँ ? परिजन छिन्न-भिन्न हो गये। हत दैबने भूतबलिको तरह मेरा कुटुम्ब जगमें तितर-बितर कर दिया ॥१-९||
[३] यह विचार कर, राम मूच्छित हो गये। फिर उन्हें चारण मुनियोंने देखा । चारण मुनि भी, वे जो आठ गुणोंवाले होते हैं। जो ज्ञान शरीर और शीलाभरण वाले होते हैं। ऐसे वीर सुधीर और त्रिशुद्ध मन आकाश में विचरण करनेवाले दो मुनिजन आये। उन्होंने अवधिज्ञानसे जान लिया कि रामको स्त्रीका वियोग हो गया है । (आकाशसे) उतरकर गलेसे गम्भीर ध्यानमें जेठे मुनि कहने लगे, "हे मोक्षगामी चरम शरीर और मूढमन राम, तुम किस कारण रोते हो। स्त्री दुःखकी खान और वियोगको निधि होती है। उसके कारण तुम क्यों रोते हो। क्या तुमने यह कथा नहीं सुनी कि किस प्रकार छहों निकायोंके जीवोंके प्रति दया रखनेवाला जिनदास गुणवतीकी अनुपीड़ासे बनमें बन्दर हुआ ।।१-९।।
[४] जब रामने किसीको कहते हुए सुना तो धरती तल पर मृळसे विह्वल वह हा सीता' यह कहते हुए उठे। और चारों