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एकचालीस संधि
देनेवाले, दान और युद्धके प्रांगण में हाथ उठानेवाले, विघटित भटसमूहको धूर-चूर करनेवाले, कामिनीजनोंके मनोंके लिए आनन्दक, सीताके साथ, सुरबरको सन्ताप पहुँचानेवाले लंकाराज रावणके शीघ्र लंका में प्रवेश करनेपर ठीक इस अवसरपर चन्द्रनखा पहुँची। दुःखकी मारी वह (रावणके) चरण कमलोंपर गिर पड़ी। शम्बुकुमार मर गया। खरदूषण यम-पथपर पहुँचा दिये गये, आपके जीते हुए मेरी यह अवस्था, रक्षा कीजिए ||१२||
[२] चन्द्रनखाके दया उत्पन्न करनेवाले वचन सुनकर रावण अपना मुख नीचा करके ऐसा रह गया, मानो चन्द्रमा निष्प्रभ रह गया हो, मानो दावानलसे दग्ध कान्तिहोन गिरि हो, मानो चारित्रसे भ्रष्ट मुनिवर हो । भवसंसारसे ग्रस्त भव्य जीवके समान, जिसकी आँख आँसुओं से भरी हुई हैं ऐसा कातर मुख हो गया मानो राहु ग्रह से प्रसित दिवाकर हो । बड़ी कठिनाईसे वह अपनेको दुःखसे छुड़ा सका। स्वजनके स्नेहको स्मरण करते हुए वह बोला--"जिसने शम्बुकुमार, खर और दूपणका घात किया है, उसे आज है मशासन के लिए भेज दूँगा । अथवा इस बड़प्पनसे क्या ! अथवा अधूरे माप ( समयमान) में कौन नहीं मरता ? तुम धीरज धारण करो, और शोक छोड़ो। जन्म, मरण और वियोग किसे नहीं होते । ( संसार में ) कोई भी का बना नहीं है । उत्पन्न हुआ जीव मरेगा ही। हमें और तुम्हें भी खरदूषणके पथपर जाना होगा ।" ॥१-९॥
[३] लक्ष्मीको माननेवाला दशानन अपनी बहनको समझाकर रात्रि में सोनेके लिए गया । लंकेश्वर उत्तम पलंग पर चढ़ा, मानो गिरिशिखरपर अवाल सहित सिंह चढ़ा हो, मानो निःश्वास छोड़ता हुआ विषधर हो, मानो दुष्टके द्वारा खेत्र