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बयालीस संधि
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पहुँचा | चूँकि तुम्हारा विनाश राम और लक्ष्मणके पास है. इसलिए इस समय भी तुम हमारा कक्षा हुआ करो । उत्तम पुरुषोंके लिए यह अच्छी बात नहीं। एक तो विनाश होगा और दूसरे लजाये जाओगे, और लोक द्वारा धिक्कार पाओगे । हे राजन् ! त्रिभुवनमें फैलती हुई, समुद्र से लेकर पृथ्वी तक स्खलित होती हुई, अपनी कीर्तिके आधारको नष्ट मत करो ।” ॥१-२॥
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[4] "हे रावण, जो परखीका रमण करते हैं, वे अपार दुखको पाते हैं । जहाँ अग्नि सहित हस हस करते हुए भयभीषण सात नरक हैं, हु-हु करते हुए उपद्रव सहित तथा सिमसिमाते हुए कृमि कर्दम से युक्त, रत्न, शर्करा, बालुका, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तम तमःप्रभा नरक हैं वहाँ बहुत समय रहना पड़ता है, पहले नरक में एक सागर प्रमाण जीना होता है । उसके बाद तीन, सात, दस, ग्यारह, सत्तरह और बाईस सागर प्रमाण, फिर तैंतीस सागर प्रमाण । वहाँ सुमेरु पर्वत के समान दुःख होते हैं। और फिर जो नरक निगोद सुना जाता है, वहाँ जबतक धरती हैं तबतक लीजना पड़ता है। इस कारण परस्त्रीका रमण नहीं करना चाहिए | वह करना चाहिए जिससे सुगतियों में जाया जाये ।" ( इसपर ) दशानन कुद्ध हो उठा, "क्या परस्त्रोंकी यह क्रिया है; बताओ तीन खण्डों के मध्य, कौन स्त्री परायी है ? ॥१- १० ॥
[६] तब विभीषणकी उपेक्षा कर रावण महागज त्रिजगभूषणपर आरूढ़ हो गया। सीताको भी पुष्पक विमानपर चढ़ा लिया, और उसने नगर में उसे बाजारकी शोभा दिखायी । वह अपने मनके परितोष और झल्लरी, पटड़ तथा तूर्यके निर्धोषके साथ चला। बोला - "हे सुन्दरी ! हमारा नगर देखी, जो वरुण, कुबेर आदि वीरोंका नाश करनेवाला हैं । हे सुन्दरी !