Book Title: Paumchariu Part 2
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ बायालीसमो संधि ३१५ चारद्वार देखो, जैसे ये धिकार सहित कामिनीके मुख हो। सुन्दरी ! देखो-देखो ध्वजछत्र, जैसे खिले हुए कमल हों। सुन्दरी ! देखो-देखो हमारा राजकुल जो हीरोंसे गम्भीर और मणि खम्भोंको शोभासे युक्त है। हे सुन्दरी ! तुम हमारा कहना करो, यह 'चूड़ा, कण्ठा और करधनी लो। हे सुन्दरी ! प्रसाद करो और चीनी, लाट, घोट और हरिकेल वख लो। मुझे जीवन दो । सुहावने वचन बोलो, गजषरके कन्धेपर चढ़ो और महादेवीका प्रसाधन स्वीकार करो" ||१-१०॥ [७] इस प्रकार सम्पत्ति दिखाते हुए उस रावणकी, आर्या रामपल्लीने भर्सना की-"तुम अपनी कितनी ऋद्धि मुझे दिखाते हो ? इसे अपने लोगोंके मध्य दिखाओ। हे रावण, यह जो तुम्हारा राज्य है वह मेरे लिए तिनके समान हलका है । यह जो सौम्य और सुदर्शनीय नगर है, वह मेरे लिए यमशासनके समान है। यह जो नेत्रोंके लिए शुभंकर राजकुल है, वह मेरे लिए मानो महा भयंकर मरघट हैं। यह जो झण-क्षणमें यौवन दिखाते हो, वह मेरे मनके लिए मानो विष-भोजन है । यह जो कण्ठा, मेखला सहित कटक है वह शील विभूषणवालोंके लिए केवल मल है। जो सैकड़ों रथवर, तुरग, गजेन्द्रादि है इनमें से मेरे लिए कोई गण्य नहीं हैं। उस स्वर्गसे भी क्या जहाँ चारित्र्यका गपडन है। यदि मेरे पास शीलका मण्डन है तो कुछ भी प्राम करनेसे क्या ? ॥१-९|| [4] जैसे-जैसे रावणको अभिलषित आशा पूरी नहीं होती, वैसे-वैसे वह हृदयमें दुःस्त्री होने लगता है--विधाता उतना ही देता है कि जो विहित है। हे मूर्ख, क्या ललाटमें लिखा हुआ कहीं जाता है । मैं किस कमके द्वारा सुब्ध हूँ, यह जानते हुए भी, जो मैं मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने कुमारीकी अभिलाषा की, जो मुखसे दीन-दुखी हरिणीके समान है।

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