Book Title: Paumchariu Part 2
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 361
________________ एकमालीसमो संधि [१३] जनककी बेटी सीताने बार-बार उक्तियोंसे मन्दोदरीकी भर्त्सना की- "बार-बार तुम कितना बोल रही है" मनमें तुमने जो सोचा है वह तुम करो। यद्यपि आज करपत्रोंसे काटो, यद्यपि पकड़कर शृगाल और श्वानोंको सौंप दो, यद्यपि जलती हुई आगमें डाल दो, यद्यपि महागजके दाँतोंसे कुचल दो, तो भी, उस दुष्ट पापकर्मा परपुरुषसे इस जन्ममें मेरी निवृत्ति है | मुझे एक ही अपना पति पर्याप्त है कि जो विजयलक्ष्मीके द्वारा एक पलके लिए भी नहीं छोड़ा जाता। जो असुर, सुर और जनों के मनका प्रिय है, वह तुमजैसी खोटी स्त्रियों के लिए दुर्लभ है, जो भीषण नरवररूपी सिंह है, जो धनुषरूपी पूंछकी लीलाका प्रदान करने वाला है, जो तीररूपी नखोंसे अरुण हैं, जिसकी धनुषरूपी लपलपाती हुई जीभ है, ऐसे रामरूपी सिंहसे, रावणरूपी मत्तगज चीर दिया जायेगा" ।।१-९।। [१४] रावण और रामचन्द्रको रमणियों (त्रियों) मन्दोदरी और सीता देवी में जब बातें हो रही थी तभी रावण स्वयं आया, उसी प्रकार, जिस प्रकार गंगाके तटपर हाथी आ गया हो । गन्धलुब्ध व्याकुल भ्रमरके समान जानकीके मुखरूपी कमलरसका लम्पट, वह अपने करतल धुनता है, ध्वनि करता है, बुदबुढ़ाता है, क्रीड़ा कर देवीको पुकारता है- "हे देवी, बिनतीसे प्रसाद करो, हे सुरसुन्दरी, मैं किससे हीन हूँ, क्या मोग और सौभाग्य में कम हूँ। क्या कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ? क्या सौन्दर्य और वर्णमें हीन हूँ ? क्या सम्मान, दान और रणमें दोन हूँ ? बताओ किस कारणसे तुम मुझे नहीं चाहती, किस कारण तुम महादेवीपट्टकी प्रतिइच्छा नहीं करती । “राघवकी पत्नीने निशाचरराजाकी भत्सना की--"हे रावण, तुम हट जाओ, तुम मेरे पिताके समान हो ।" ॥१-९|| २३

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