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एकचालीस संधि
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[१५] जानते हो, तो भी मोहको प्राप्त होते हो, परस्त्रीको ग्रहण कर क्या शुद्धि होती है। जबतक तुम्हारा अपयशा डंका नहीं बजता, जबतक लंका नगरी नाशको प्राप्त नहीं होती, जबतक लक्ष्मणरूपी सिंह षिरुद्ध नहीं होता, जबतक रामरूपी यम नहीं जान पाता, जबतक वे तीरोंकी पंक्तिका सन्धान नहीं करते, जचतक वे तरकस युगल नहीं बाँधते, जबतक विकट उरःस्थलका वे भेदन नहीं करते, जबतक उनका बाहुदण्ड
तुम्हारा छेदन नहीं करता. जबतक सरोवर में इसके समान दलों से विमल दससिररूपी कमलोंको वे नहीं तोड़ते, जबतक गीध पक्ति नहीं पटती, जबतक निशाचर बल नहीं नष्ट होता, जबतक वे ध्वजचिह्नों को नहीं दरसाते, और जबतक रणमें कबन्ध नहीं नचते, जनतक श्रेष्ठ तीरोंसे युद्ध में काटे नहीं जाते, तबतक है नराधिप, तुम राघवचन्द्र के पैर पड़ लो । " ॥१-५।।
[ १६ ] यह सुनकर रावण क्रुद्ध हो गया । मानो मेघके गरजने पर पंचानन हो । क्रोधरूपी ज्वालासे प्रदीप्त लंकेश्वर विद्याधर- परमेश्वर दशानन सोचता है- क्या यमशासन के पथपर भेज दूँ ? क्या कुछ भी उपसर्ग दिखाऊँ ? अवश्य ही यह भयके वशसे मुझे चाहने लगेगी, और मेरी कामज्वालाको शान्त कर देगी । उस अवसर पर तबतक अपने अश्व और रथवर सहित दिवाकर अस्तको प्राप्त हो गया। नाना रूपोंवाले अट्टहास करते हुए भूतों, खर, इवानकुल, विडाल, शृगालों, अनेक चामुण्ड· रुण्डों और बेतालों, राक्षस, सिंह, बाघ, हाथी, गैंडों, मेत्र, महिष, वृषभ, तुरंग और नृसमूहोंके साथ रात आयी । उस भयानक उपसर्गको देखकर, तो भी सीता के लिए रावण शरण नहीं था । घोर रौद्र ध्यानको चूर-चूर कर अपने मनको धर्मध्यान आपूरित कर (प्रतिज्ञा ले ली ) - जबतक गम्भीर उपसर्ग-भय से मैं मुक्त नहीं होती, वचतक मेरी चार प्रकार